सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

हमारा क्या प्रयोजन है?"

"सान्ध्य वेला आ रही है, मेघाम्बर की लाल-सिन्दूर-रेखा भाल पर दिए हुए। वनश्री धीरे-धीरे स्तब्ध होती जा रही है। यह पूर्वाकाश में चन्द्रोदय हो रहा है। आर्यपुत्र! तुम कहां हो? कहां हो, ओ निष्ठुर! ओ निर्मम!"

देवी सीता! धैर्य धारण करो। देखो वे चिरंजीव लव-कुश आ रहे हैं, सान्ध्य क्रीड़ा करके। ये तुम्हारी आत्मा के अंश हैं। इन्हीं में अपना मन रमाओ। इन्हें अपना प्यार दो।"

दोनों बालक लव-कुश आकर सीता से लिपट गए। सीता ने उन्हें अपनी छाती से लगा लिय। उसकी आंखों में आंसू इलक अए। उसने कहा, "मेरे लाल! मेरे नेत्रों की ज्योति! मेरे जीवन-धन! अब तो तुम्ही इस दुखिया माता के सहारे हो।"

बाईस

ऋष्यशृंग के आश्रम में आश्रमवासिनी आत्रेयी और मुनि विभाण्डक बैठे बातें कर रहे थे। विभाण्डक बोले, "आर्ये आत्रेयी! महा तपस्वी ऋष्यशृंग का बारह वर्ष का सत्र तो अब समाप्त हो गया, महात्मा ऋष्यशृंग ने पूजा करके सब गुरुजनों को विदा कर दिया; किन्तु अयोध्या का राजपरिवार और रघुवंशियों की रखवाली करने वाले महर्षि वसिष्ठ तो अभी यहीं हैं। वे सब कब अयोध्या जाएंगे?"

"वे सब अब अयोध्या नहीं जाएंगे। भगवती अरुंधती ने कहा है कि सीता से रहित अयोध्या में मैं नहीं जाऊंगी। उनके आग्रह को देख कौशल्या आदि राजमाताओं ने भी यही ठान लिया है। उनके इस हठ के कारण महर्षि वसिष्ठ भी निरुपाय हो रहे।"

"अच्छा, तो उस निर्दयी राजा को सबने त्याग दिया? फिर भला अब राज का पुरोहित कौन है?"

"वामदेव ऋषि राज के सब वेदोक्त संस्कार कराते हैं।"

"भला राजा ने निष्पाप महिषी सीता का गर्भावस्था में त्याग किया, तो फिर दूसरा विवाह भी किया?"

"नहीं, भाई! एक पत्नीव्रती रामचन्द्र संयम से रहते हैं।"

"अहा, तब तो राजा में अभी विवेक है, फिर यही बात थी, तो उसने निर्दोष पत्नी को क्यों त्यागा?"

"अपवाद के भय से।"

८०