निकलने लगी। महाराज, सभी राक्षस उस समर में काम आए, पूर्वजन्म के पापों के बदले स्वामी को यह दारुण संदेश देने को यह अधम बच गया। स्वामी! मैं महाबली वीरवाहन को शरशय्या पर असंख्य योद्धाओं के साथ सोता छोड़ यहां आया हूँ। मेरा वध कराइए।"
इसी समय सभाभवन में राजमहिषी देवी चित्रांगदा निराभरण शरीर, खुले बाल, आंखों में अविरल अश्रुधारा, भारी-भारी निश्वास लेकर गिरती-पड़ती सखियों समेत विलाप करती आई। उसका विलाप सुनकर छत्रधर के हाथ से छत्र गिर पड़ा। द्वारपालों के हाथ से तलवारें छूट गई और सभासद अधीर होकर चीत्कार कर उठे। रावण ने चौंककर राजमहिषी की ओर देखा। राजमहिषी ने अश्रुपूरित नेत्रों से कहा, “नाथ! विधाता ने मुझे एक मोती दिया था, जैसे चिड़ियां अपने बच्चों को बड़े यत्न से घोंसले में रखती है, उसी भांति इस अभागिनी ने उसे आपके पास रखा था। आप मेरे पति परमेश्वर और महावीर लंकाधिपति हैं। राजन! दरिद्र के धन की रक्षा करना राजा का धर्म है। कहिए महाराज! मेरा वह धन कहां है? मेरा वह अनमोल मोती, मेरा पुत्ररत्न कहां है?"
रावण ने दु:खी होकर अपनी पत्नी की ओर देखा, प्रिये! भाग्यदोषी की कोई निन्दा नहीं करता, फिर तुम क्यों मेरा तिरस्कार करती हो? तुम तो केवल एक ही पुत्र के शोक में अधीर हो; परन्तु मेरा हृदय हजारों पुत्रों के शोक से फटा पड़ता है। यह वीरनगरी लंका आज ऐसी हो रही है, जैसे गर्मी की लू में झुलसा हुआ बगीचा अथवा सूखी हुई नदी।" यह कहकर रावण रो पड़ा। चित्रांगदा भी रोते-रोते धरती पर गिर पड़ी।"
यह देख रावण अधीर हो उठा। उसने कहा, "देवी! ऐसा विलाप न करो। उठो, तुम्हारे पुत्र के पराक्रम से मेरा वंश उज्ज्वल हो गया। उसने देश के बैरी का विध्वंस करके प्राण त्यागा।"
"महाराज! जो वीर युद्ध में बैरी का नाश करता है, उसकी माता धन्य हैं; परन्तु नाथ! सोचिए तो सही, क्या राम देश का शत्रु है? कहिए, वह किस लोभ से यहां आया है? वह सरयूतीर बसने वाला भिक्षुक क्या आपकी स्वर्णलंका और स्वर्णसिंहासन पाने के लिए युद्ध कर रहा है? कहिए, स्वामी! इस काल-अग्नि को किसने जलाया है? हाय नाथ, अपने कुकर्म से राक्षस कुल को डुबोकर आप स्वयं भी डूब रहे हैं।"
यह कहकर विलाप करती और आंसुओं के नीर बहाती चित्रांगदा दुःखी मन वहां से चल दी। रावण सिंहासन से उठता हुआ बोला, "हाय! लंका वीरशून्या हो गई। अब इस कालयुद्ध में मैं किसे भेजूं? अच्छा, मैं
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