हूँँ। इतने में देखा कि एक मनुष्य काले बादल के भीतर से
निकल कर आग के रथ पर चढ़ा हुआ नीचे की ओर आ रहा
है। उस मनुष्य का शरीर भी तेजो-मय था। ऐसा देदीप्यमान
कि मैं उस ओर देख नहीं सकता था। उस व्यक्ति का मुँँह
और भौंहें बहुत टेढ़ी थीं। रूप अत्यन्त भयङ्कर था। उसके
धरती पर पैर रखते ही खूब ज़ोर से भूकम्प होने लगा और
आकाश से तारे टूट टूट कर गिरने लगे। वह भयानक रूपधारी व्यक्ति धरती पर उतरते ही मेरी ओर अग्रसर होने लगा।
उसके हाथ में एक अग्निमय जलता हुआ त्रिशूल था। वह मेरी
ओर शूल उठा कर वज्रस्वर से बोला-–"अरे पापिष्ट! क्या
इतने पर भी तेरे मन में अनुताप न हुआ। तो अब तू
मर।" यह कह कर वह शूल लेकर मुझको मारने पर
उद्यत हुआ।
उस समय मेरे मन में जैसा डर हुआ था उसे मैं इस समय किसी तरह कह कर समझाने में अक्षम हूँ। निद्रित अवस्था में जो मुझे भय हुआ था वह तो हुआ ही था, जागने पर भी घंटों तक कलेजा धड़कता रहा। उसकी वह भयङ्कर मूर्ति और वह वज्रस्वर अब भी जी से नहीं भूलता।
मैं यथार्थ में अभागा हूँँ। क्योंकि ईश्वर के सम्बन्ध में मेरा कोई ज्ञान न था। मैंने अपने पिता से जो कुछ शिक्षा पाई थी वह, इतने दिन कुसंगति में पड़े रहने से, एकदम लुप्त हो गई थी। सम्पत्ति में ईश्वर से डरना, विपत्ति के समय उन्हीं के ऊपर निर्भर होकर रहना, और विपदा से मुक्त होने पर हृदय से उनका कृतज्ञ होना मैंने नहीं सीखा। इतने दिन जो भाँति भाँति के क्लेश सह रहा हूँँ, वह मेरे ही पाप का फल है या