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द्वीप का परिदर्शन।

उद्धार का नवीन अर्थ आज मेरे हृदय में प्रतिभासित हुआ। पाप के पंजे से, मन के मोहरूपी कारागार से, स्वार्थपरता के एकावलम्बन से उद्धार पाना ही यथार्थ उद्धार है। मैं समझ गया कि इस द्वीप से उद्धार होने की अपेक्षा अन्यान्य दैहिक और मानसिक अवस्थाओं से पहले मेरा उद्धार होना आवश्यक है। इस जनशून्य द्वीप से छुटकारा पाने का उद्वेग दूर हुआ। इसके लिए मैंने फिर ईश्वर से कभी प्रार्थना भी नहीं की।

इस समय मेरी जीवनयात्रा कष्टकर होने पर भी मेरा चित्त शान्त भाव से सन्तुष्ट था। मैंने जो हृदय में शान्ति पाई थी उसका पहले कभी अनुभव तक न हुआ था। मैं धीरे धीरे बलिष्ठ हेकर फिर यथासाध्य घर का काम धन्धा करने लगा।

मैंने जिस उपचार के द्वारा ज्वर में चिकित्सा की थी उसीसे मेरा ज्वर जाता रहा या श्राप ही निवृत्त हुआ, यह मैं नहीं जानता। किन्तु इस प्रक्रिया से मेरा शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था और बीच बीच में नाड़ी और अङ्ग प्रत्यङ्ग में पीड़ा हुआ करती थी। इस ज्वर से मुझे थोड़ा सा सही ज्ञान हुआ कि बरसात में मस्तिष्क की दशा अच्छी नहीं रहती और ज्वर विशेष अस्वास्थ्यकारी होता है। शरद ऋतु की वर्षा से ग्रीषम की वर्षा विशेष हानिकारक होती है।


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द्वीप का परिदर्शन

इस निरानन्दकारी द्वीप में आये मुझे दस महीने से ऊपर हुए। मालूम होता है, इस द्वीप की सृष्टि होने से लेकर अब तक मेरे सिवा, कोई मनुष्य आज तक यहाँ न आया था। इस