एक लकड़ी में लटकाकर रख दिया था। उनमें से कितने ही तो धूप में सूख कर ऐसे सख्त हो गये थे कि उनसे कोई काम लेना कठिन था। पर उन में कई एक मुलायम भी थे। उसी चमडे की पहले मैंने एक टोपी बनाई। चमड़े का चिकना हिस्सा नीचे रहने दिया और ऊन को ऊपर कर दिया। टोपी बनाने में सफलता प्राप्त करके मैंने उस चमड़े की कुछ पोशाकें भी बनानी चाहीं। कुछ दिन में खूब अच्छी ढीली ढाली कुछ पोशाकें तैयार कर ली। उनकी काट छाँट बहुत भद्दी थी, यह मुझे स्वीकार करना ही पड़ेगा। जो हो, उनसे मेरा काम मज़े में चल जाता था। वृष्टि में भी वे न भीगती थीं। ऊन पर से होकर पानी तुरन्त नीचे गिर पड़ता था। वे मज़े में बरसाती कपड़ों का काम देती थीं।
इसके अनन्तर एक छतरी बनाने में मुझे बहुत श्रम करना और समय लगाना पड़ा। धूप इतनी कड़ी होती थी कि छतरी नितान्त आवश्यक थी। बड़ी कठिनाई और अनेक युक्तियों से मैने जैसी तैसी एक काम चलाने योग्य छतरी तैयार की। वह खोली और मोड़ी भी जाती थी। इसके ऊपर भी ऊन ही थी। वह धूप और पानी दोनों का, विलक्षण रीति से, निवारण करती थी।
इस प्रकार मैं बड़े आराम से अपने को ईश्वर की कृपा के ऊपर निर्भर कर एकान्तवास करने लगा।