पृष्ठ:राबिन्सन-क्रूसो.djvu/१४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२७
नौका को पानी में ले जाना।


बालू का मैदान था। इतनी दूर चक्कर लगा कर जाने में मुझे बहुत समय लगा।

पहले, मार्ग की यह अवस्था देख कर मैं आगे बढ़ना नहीं चाहता था-कौन जाने, कितनी दूर तक समुद्र की ओर जाना होगा। कहीं गया भी तो फिर लौटूँगा कैसे? तब मैं लगर डाल कर सोचने लगा। (मैंने जहाज़ के टूटे फूटे लोहों से एक साधारण लङ्गर भी बना लिया था।) मैंने डोगी से उतर कर सूखे रास्ते से पहाड़ के ऊपर चढ़ कर बालू के मैदान की दौड़ देखी। देख कर मुझे साहस हुआ। मैं फिर वहाँ से रवाना हुआ।

थोड़ी दूर जाते न जाते मेरी नौका एक प्रखर प्रवाह में जा पड़ी। यद्यपि मेरी नाव किनारे के बहुत ही समीप थी तथापि मैं ज़ोर करते करते थक गया पर उस को किनारे तक न ला सका। मैंने देखा कि मेरी बाईं ओर एक भँवर था, उसी का उलटा स्रोत मुझे ठेल कर समुद्र की ओर लिये जा रहा था। मैंने नाव खेने का लग्गा रख दिया। वह अपने मन से उस तीक्ष्ण धार में निकल चली। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो बैठ रहा। इस बार मैंने अपने को गया ही समझा। यदि डूबने से बच भी जाऊँगा तो भी महासमुद्र में पड़ कर बे दानापानी के मर मिटूँगा। साथ में जो कुछ खाने-पीने की चीजें हैं वे कै दिन चलेंगी? इन बातों को सोच कर मैं उसो निर्जन टापू के लिए व्याकुल हो उठा। नाभिकुण्ड से बार बार यह शब्द प्रतिध्वनित होने लगा, 'हाय! मैं कहाँ जा रहा हूँ? न मालूम किस किनारे पर मेरी यह छोटी सी नौका लगेगी?' किनारे से मैं बहुत दूर जा पड़ा। साथ में कम्पास (दिनिर्णायक यन्त्र) भी न था। यदि रात हो जाय या कुहरा