सिर में चमड़े की बेडौल टोपी थी, जिसके ऊपर लम्बे लम्बे बाल लटक रहे थे। इसी ढंग का कोट और ढीला पायजामा था। पैरों में भी ऐसा ही एक चमड़ा लिपटा था। न उसे मोजा कह सकते हैं और न जूता ही। कमर के दोनों ओर चमड़े की पेटी से लगकर एक बसूला और एक कुल्हाड़ी झूल रही थी। गले में झूलती हुई एक चमड़े का थैली में गोली-बारूद थी। पीठ पर टोकरी, और कन्धे पर बन्दूक थी। हाथ में वही चर्मनिर्मित छतरी थी। आध हाथ लम्बी डाढ़ी लटक रही थी और मुँह पर पकी हुई लम्बी मोछें फहरा रही थीं।
ऐसा भयङ्कर चेहरा लेकर मैंने यात्रा की। पाँच छः दिन के बाद मैं उस मोड़ के पास आ पहुँचा जहाँ मेरी डोंगी स्रोत में पड़ कर मेरे हाथ से निकल गई थी। इस समय वहाँ स्रोत का चिह्न न देख पड़ा। मैं क्षुब्ध होकर इसका कारण सोचने लगा। सोचते सोचते मेरे ध्यान में यह बात आई कि भाटे के समय किसी नदी के स्रोत का ऐसा भयङ्कर वेग होता होगा।
मेरा यह अनुमान ठीक निकला। यथार्थ ही में जब भाटा आया तब फिर वैसा ही प्रखर स्रोत बहने लगा। तब मैंने सोचा कि ज्वार के समय डोंगी को उधर से ले आना सहज होगा, किन्तु ऐसा करने का साहस न हुआ। प्राणों को संकट में डालने की अपेक्षा फिर एक नाव बना लेना ही मैंने अच्छा समझा। उसके बनाने में अधिक समय और श्रम लगेगा तो लगे, यह मुझे स्वीकार है; पर उस सर्वनाशी प्रखर प्रवाह में जाने का साहस नहीं कर सकता।
इस समय मेरे दो खलिहान थे; एक मेरी चहार दीवारी के पास, और दूसरा कुञ्जभवन के भीतर। इन्हीं के आस पास