मेरे पालतू पशुओं की चरागाह थी। इसके चारों ओर पेड़ की डालों के खूब घने खंभे बनाकर और उन्हें धरती में गाड़ कर घेरा दे दिया था। वे शाखाएँ लगकर बड़े बड़े वृक्ष बन गई थीं। यह घेरा इस समय दीवाल की अपेक्षा मज़बूती में बढ़ा चढ़ा था। इन बातों से समझना चाहिए कि मैं कभी आलसी होकर नहीं रहता था, बराबर अपने कामों में लगा रहता था।
मेरा कुञ्जभवन द्वीप के प्रायः मध्यभाग में था इसलिए मैं आजकल अधिक समय तक यहीं रहता था और बीच बीच में डोंगी पर चढ़ कर किनारे के आस पास समुद्र में इधर उधर घूमता था। मैं एक रस्सी से अधिक दूर जाने का साहस न करता था।
अपरिचित पद-चिह्न
एक दिन में दोपहर को अपनी नाव की ओर जा रहा था। तब समुद्र के किनारे बालू के ऊपर किसी आदमी के पैर का चिह्न देखकर मुझे अत्यन्त आश्चर्य हुआ। पदचिह्न देखते ही मैं वज्राहत की तरह स्तब्ध हो कर खड़ा हो रहा। चारों ओर दृष्टि उठाकर देखा, कान लगा कर सुना, परन्तु न कहीं किसी को देखा और न किसी को कुछ बोलते सुना। तब ऊँची जगह चढ़कर देखा; समुद्र के किनारे किनारे इधर उधर घूमकर पता लगाया किन्तु सिवा उस एकमात्र पदचिह्न के और कहीं कुछ देख न पड़ा। फिर मैंने सोचा, वह चिह्न मेरे मन का भ्रम तो नहीं है, इसलिए मैं उस चिह्न को फिर अच्छी तरह देखने गया। देखा, भ्रम नहीं, वह सचमुच