कि ईश्वर दयालु और मङ्गलमय हैं इसलिए मैंने उनके इस विधान को शुभ मान लिया। तब मुझे बाइबिल के उस मधुमय वाक्य का स्मरण हो आया-विपत्ति में मेरी शरण गहो, मैं विपत्तिसे तुम्हें छुड़ाऊँगा और तुम मेरी महिमाका प्रचार करोगे।
["अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवहितोऽपि सः॥
शीघ्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥"]
अर्जुन के प्रति भगवान् श्रीकृष्ण का कहा हुआ यह वाक्य बाइबिल के उपर्युक्त वाक्य से कुछ मिला जुला सा प्रतीत होता है। अस्तु।]
ऐसा ही सोच विचार करते कई सप्ताह बीत गये। किसी तरह वह सुन्दर उपदेश चित्त से न हटता था। एक दिन एकाएक मेरे मन में यह भावना हुई कि वह पद-चिह्न मेरा ही तो न था? जब मैं नाव से उतरा था तब का तो चिह्न नहीं है? इस बात का खयाल होते ही मेरा मन प्रफुल्ल हो उठा। भय दूर हुआ। मैंने अकारण इतना क्लेश पाया। अपनी इस मूर्खता पर मुझे बड़ी हँसी आई। कितने ही गवाँर आदमी जैसे अपनी छाया को देख कर भूत के भय से अभिभूत होते हैं उसी तरह मैंने अपना पद-चिह्न देख कर भय से इतना क्लेश पाया। मारे हँसी के मैं लोट-पोट हो गया। कितने ही लोग भ्रम में पड़ कर ऐसे ही भाँति भाँति के क्लेश सहते हैं।
इस नई भावना से साहस पा कर तीन दिन बाद में फिर बाहर निकला। घर में कुछ खाने की वस्तु भी न थी,