ख़ूब अच्छी नींद नहीं पाती थी। मैं भयङ्कर स्वप्न देख कर बैंक उठता था। यों ही महीने पर महीना बीतने लगा।
द्वीप के पास जहाज़ का डूबना
क्रम क्रम से मई महीना आया। उस दिन सोलहवीं तारीख़ थी। मेरी काठ की यंत्री की गणना से यही ठीक था। दिन भर आँधी के साथ साथ पानी बरसता रहा। रात में भी हवा का वेग कम न हुआ। वन-विद्युत् का प्रभाव भी ज्यों का त्यों बना रहा। मैं बैठ कर बाइबिल पढ़ रहा था। एकाएक समुद्र में तोप का धडाका सुन कर मैं चकित हुआ। मैं आश्चर्यान्वित हो कर झट अपने आसन से उठ बैठा। सीढ़ी के सहारे पहाड़ की चोटी पर चढ़ कर मैंने देखा, जिस तरफ़ स्रोत के प्रखर वेग में पड़ कर मेरी नाव बह चली थी उसी ओर आग की झलक दिखाई दी। मैंने निश्चय किया कि वहीं से तोप की आवाज़ आई है। यथार्थ में थी भी यही बात। आध मिनट के बाद फिर तोप का शब्द सुन पड़ा। कोई जहाज़ तूफान में पड़ कर साहाय्य का संकेत कर रहा है। मेरी समझ में झट एक बात आगई। मेरे आस पास वहाँ जितनी सूखी लकड़ियाँ थीं सब को मैंने इकट्ठा किया और चकमक से आग बना कर उसमें बत्ती लगा दी। आग लगते ही बल उठी। ऐसा करने का मेरा यह अभिप्राय न था कि मैं उस जहाज़ की कुछ सहायता कर सकूँगा। मेरा इरादा तो यह था कि वही शायद मेरी कुछ सहायता कर सके। मेरे द्वारा प्रज्वलित आग का प्रकाश जहाज़ के लोगों ने देख लिया। मेरी आग की ज्वाला ऊपर की ओर उठते ही पहले