सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:राबिन्सन-क्रूसो.djvu/२०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८१
क्रूसो और फ्रा़इडे।


था उस दृष्टि से अब नहीं देखता। उसके साथ अब मैं उस तरह मिलता-जुलता भी न था। इसके अलावा उसका असली मतलब जानने के लिए मैं रोज़ रोज़ उससे अनेक प्रकार की जिरह करने लगा। मेरे प्रश्न का उत्तर वह ऐसा सरल और प्रेमपूर्ण देता था जिससे मेरे मन का भ्रम शीघ्र ही दूर हो जाता था। एक दिन मैं उससे यों प्रश्न करने लगा:-

मैं-फ़्राइडे, क्या तुमको अपने देश जाने की बड़ी अभिलाषा होती है?

फ़्राइडे-हाँ, होती क्यों नहीं, अपने देश जाने की इच्छा किसे नहीं होती?

मैं-तुम वहाँ जाकर फिर उसी तरह नंगे, नरमांसभोजी, और अधार्मिक बनोगे?

फ़्राइडे-नहीं, नहीं, यह क्यों? मैं अपने देश के लोगों को प्रेम और धर्म की शिक्षा दूँगा और नर-हत्या करने से उन्हें रोकूँगा।

मैं-तब तो वे लोग तुम्हें मार ही डालेंगे?

फ़्राइडे-नहीं, वे लोग धर्म-कर्म की बात सीखना बहुत पसन्द करते हैं। उन बृहत्-नौकारोही गौराङ्ग लोगों से वे लोग कितने ही विषय सीख चुके हैं, और भी सीखते होंगे।

मैं-तो क्या तुम देश लौट जाओगे?

फ़्राइडे हँस कर बोला-जाऊँगा कैसे? इतनी दूर तैर कर कोई कैसे जा सकता है?

मैं-जाने के लिए तुमको एक नाव तैयार कर दूँगा।