वे मेरा वह रुपया लौटा सके। इसलिए उन्होंने अपना उस जहाज़ का अंश मेरे नाम लिख-पढ़ दिया और एक तोड़ा रुपया दिया। मैं अपने इस परम उपकारी मित्र की ऐसी शिष्टता, निश्छलता और उदारता देख कर मुग्ध हो गया। मेरी आँखों में आँसू भर आये। मैंने उनसे पूछा, इस समय मुझको इतना रुपया वापस देने से आपको कोई कष्ट या असुविधा तो न होगी? उन्होंने कहा, "असुविधा न होगी यह कैसे कहूँ; तथापि यह रुपया आपका है, यह मुझको देना ही होगा।" यह सुन कर मैंने उस तोड़े में से सिर्फ पाँच सौ रुपये लेकर बाक़ी उनको लौटा दिये और रुपया पाने की रसीद लिख दी। फिर यह रुपया भी उन्हें दे दिया और जहाज़ का अंश भी उनके पुत्र से न लिया। वे मुझे मेरा अंश देने को तैयार हैं, यही सन्तोष मुझे सब अभावों का निवारक हुआ। मैं उनसे एक पैसा भी लेना न चाहता था। जिन्होंने विपत्ति के समय दया करके मेरी रक्षा की थी, जो मुझे स्वाधीनता दिलाने में सहायक हुए थे, उनको कष्ट देकर मैं सुख भोगूँ-ऐसा नृशंस मैं न था। मैंने वृद्ध की दी हुई एक भी वस्तु न ली। यह देख कर उन्होंने मेरो खेती का अंश मुझको दिला देने का प्रस्ताव किया। मैंने कहा कि मैं स्वयं ब्रेज़िल जाकर अपना अंश ले लूँगा। उन्होंने कहा, "तुम्हारी इच्छा हो तो तुम जा सकते हो, किन्तु तुम वहाँ न जाओ तो भी मैं यहीं से वहाँ का सब प्रबन्ध कर दे सकता हूँ।" मैं इसी में राज़ी हो गया। उन्होंने अदालत में जाकर शपथ-पूर्वक निवेदन किया कि "राबिन्सन अभी तक जीवित हैं। इन्हें अपने कृषि कारखाने का अंश मिलना चाहिए।" उन्होंने अदालत से मेरा दावा मंजूर कराकर एक परवाना
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