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पृष्ठ:राबिन्सन-क्रूसो.djvu/२६९

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राबिन्सन क्रूसो।

दूसरी बार की विदेशयात्रा

१६९३ ईसवी के कुछ दिन पहले ही मेरा जहाज़ी भतीजा जहाज़ का सफ़र तय कर के देश लौट आया। उसके परिचित कुछ सौदागर, अपने साथ लेकर, उसको भारत और चीन में वाणिज्य करने का अनुरोध करने लगे। उसने एक दिन मुझसे कहा,-चाचाजी, यदि आप मेरे साथ चले तो आपको ब्रेज़िल आदि पूर्व-परिचित देश दिखा लाऊँ।

"जो रोगी को भावे सो बैद बतावे" की कहावत चरितार्थ हुई। मैंने अपने मन में निश्चय किया था कि मैं यहाँ से लिसबन जाऊँगा और वहाँ अपने कप्तान मित्र से सलाह लेकर एक बार अपने द्वीप में जाकर देख आऊँगा कि मेरे उत्तराधिकारी कैसे हैं! इस देश से लोगों को ले जाकर उस द्वीप में बसाने की कल्पना कर के भी मैं मन ही मन सुख का अनुभव कर रहा था। किन्तु अपने मन की ये बातें मैं किसीसे कहता नहीं था। सहसा अपने भतीजे के इस प्रस्ताव से विस्मित होकर मैंने कहा-बेटा! सच कहो, किस शैतान ने तुमको ऐसा अयुक्त प्रलोभन दिखलाने भेजा है? मेरा भतीजा पहले, यह समझ कर कि मैं उसके प्रस्ताव से रुष्ट हो गया हूँ, चुप होकर मेरे मुँह की ओर देखने लगा। परन्तु बार बार मेरे चेहरे की ओर ध्यान से देख कर उसने समझा कि मेरा मन उतना अप्रसन्न नहीं है। तब उस ने ठंढी साँस भर कर और मुसकुरा कर कहा-मैं आशा करता हूँ कि इस बार अयुक्त प्रलोभन न होगा। आप अपने पूर्व-राज्य को देख कर सुखी होंगे।