पृष्ठ:राबिन्सन-क्रूसो.djvu/२७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२४७
दूसरी बार की विदेश-यात्रा।

मैं शीघ्रही उसके प्रस्ताव पर सम्मत हो कर बोला,-"अच्छा तुम ले चलो, पर मैं अपने उसी टापू तक जाऊँगा, उससे आगे न बढ़ेगा। मुझे बहुत दूर जाने का साहस नहीं होता।" उसने कहा-"क्यों? आप फिर उसी द्वीप में रहना तो नहीं चाहते?" मैंने कहा,-"नहीं, तुम जब उधर से लौटो तब फिर मुझे अपने साथ लेते आना।" उसने कहा,-"उस राह से लौटने में सुभीता न होगा। मान लीजिए, यदि मैं किसी कारण से लौटती बार उस द्वीप में न पहुँच सकूँ तब तो फिर आपका निर्वासन ही होगा।" यह बात मुझे खूब युक्तिसंगत जान पड़ी। किन्तु हम दोनो ने तत्काल एक उपाय सोच लिया। हम लोग एक नाव का फ्रेम (पार्श्वभाग) जहाज़ पर रख लेंगे और कुछ बढ़ई मिस्त्रियों को भी साथ ले लेंगे। वे द्वीप में पहुँच कर उस फ़्रेम के भीतर तख़्ते जड़ कर ठीक कर देंगे। भतीजा मुझे द्वीप में छोड़ कर चला जायगा; लौटते समय वह मुझको जहाज़ पर चढ़ा लेगा तो अच्छा ही है, नहीं तो मैं उसी नाव पर सवार हो कर ब्रेज़िल जाऊँगा और वहाँ से यात्री-जहाज़ के द्वारा अपने देश को लौट आऊँगा।

मेरी वृद्धा मित्र-पत्नी ने मेरा इस बुढ़ापे में विपत्ति के मुख में घुसना पसन्द न किया। उसने लम्बी समुद्रयात्रा के क्लेश, विपत्ति की सम्भावना, और मेरे बाल-बच्चों की बात याद दिला कर मुझको जाने से रोकने की चेष्टा की। किन्तु जब उसने मुझको जाने के लिए अत्यन्त आतुर देखा तब बाधा देना छोड़ दिया और लाचार होकर स्वयं मेरी यात्रा का सब सामान ठीक कर देने में प्रवृत्त हुई।

मैंने एक वसीयतनामा लिख कर अपनी धन-सम्पत्ति अपने बच्चों के नाम से लिख पढ़ दी। सन्तानों की शिक्षा-