उलटा ही हुआ। "उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये। पयःपानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्धनम्॥" जो माँझी उस अत्याचार का अगुआ था वह एक दिन बड़े निर्भीक भाव से मेरे पास आकर मेरी ओर लक्ष्य कर के बोला-तुम कौन होते हो जो रात-दिन इस बात को लेकर उपदेश की झड़ी लगाये रहते हो, और हम लोगों को झिड़कियाँ बताते हो? तुम तो इस जहाज़ के मामूली यात्री हो। हम लोगों पर तुम इतनी हुकूमत क्यों करते हो? मैं देखता हूँ, तुम हम लोगों को फँसाने की चेष्टा कर रहे हो। इँगलैंड जाकर हम लोगों को तुम कानून के जुर्म में फँसा कर, मालूम होता है, भारी फ़साद उठाओगे। इसलिए अभी कहे देता हूँ कि यदि तुम मौन साध कर भले श्रादमी की तरह न रहोगे तो तुम्हारे हक में अच्छा न होगा।
मैंने धीरता-पूर्वक उसकी सब बातें चुपचाप सुन लीं। इसके बाद मैंने गम्भीरता-पूर्वक कहा-"तुम लोगों के व्यवहार से मेरे चित्त को सन्तोष नहीं होता। इसीसे मैं बराबर तुम्हारे इस काम में बाधा डालता आता हूँ। इतना कहने का अधिकार प्रायः सब को है। इसे तुम प्रभुता समझो या जो तुम्हारे जी में आवे सो समझो।" यह कहते कहते ज़रा मैं भी क्रुद्ध हो उठा।
माँझी इस पर कुछ न बोला। मैंने समझा, विवाद यहीं तक रहा। इतने में हम लोग कारोमण्डल उपकूल से हो कर भारत में पहुँच गये। वह देश देखने के लिए मैं किनारे उतर पड़ा। सन्ध्या समय जहाज़ पर लौट जाने का उद्योग कर रहा था कि जहाज़ से एक आदमी ने आकर मुझसे कहा, "आप नाव पर चढ़ने का कष्ट न उठावें। आपको जहाज़