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चोरी के जहाज़ पर क्रूसो।


जान मैं लवङ्ग खरीदने चला। मैं बोर्नियो प्रभृति टापुओं में घूमता-फिरता पाँच महीने में फिर अपने बड़े पर आ पहुँचा और फारस के सौदागरों के हाथ लवङ्ग और जायफल बेच कर एक के पाँच वसूल कर मैंने बहुत धन कमाया।

हम लोगों ने लाभ का रुपया आपस में बाँट लिया। मेरे साझीदार अँगरेज ने मुझ पर जरा आक्षेप करके कहा-"कहिए साहब! आलसी होकर बैठ रहने की अपेक्षा इधर उधर घूमना-फिरना अच्छा है या नहीं?" मैंने कहा-हाँ, अच्छा तो है, किन्तु आप मेरे स्वभाव को भली भाँति नहीं जानते। जब भ्रमण का उन्माद मेरे सिर पर सवार होगा तब आपको दम लेने की भी फुरसत न दूँगा। आपकी नाक में रस्सी डाल कर अपने साथ साथ लिये फिरूँगा।



चोरी के जहाज़ पर क्रूसो

इसके कुछ दिन बाद बाताविया से एक पोर्तगाल का जहाज़ पाया। जहाज़ के मालिक ने उस जहाज के बेचने का विज्ञापन दिया। मैंने जहाज मोल लेने का निश्चय करके अपने साझी से कहा। वे भी राजी हुए। हमने मूल्य देकर जहाज ले लिया। हमने जहाज के नाविको को नौकर रखने की इच्छा से उनको खोजने जाकर देखा कि जहाज पर एक भी प्राणी नहीं है। सभी न मालूम कहाँ चम्पत हुए। खबर मिली कि वे लोग यहाँ से मुग़लों की राजधानी आगरा जायँगे। वहाँ से सूरत, और सूरत से फ़ारस की खाड़ी होते हुए अपने देश को लौट जायँगे।