हम लोग मूर्ति के पास पहुँचे। उसके समीप एक घर के भीतर वही तीनों पुजारी पाँच छः व्यक्तियों के साथ ग़प शप कर रहे थे। बाहर अंधेरा था। घर में एक चिराग टिमटिमा रहा था।
हमने निश्चय किया कि पहले इन लोगों को गिरफ्तार कर के तब काठ के कुन्दे में आग लगा कर उसे जला देंगे इसलिए हम ने किवाड़ में जाकर धक्का मारा। तब एक शख़्स किवाड़ खोल कर बाहर आया। उसको पकड़ कर हम लोगों ने झट उसके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया और हाथ-पाँव बाँध एक तरफ़ डाल दिया। दूसरे व्यक्ति के निकलने की अपेक्षा से हम लोग देर तक बैठे रहे, पर कोई न निकला। यह देख कर हमने फिर किवाड़ों में धक्का दिया। दूसरे व्यक्ति के घर से बाहर होते ही वही व्यवहार किया गया जो पहले के साथ किया गया था। ऐसे ही हमने कई व्यक्तियों को बाँध लिया। बाको कई व्यक्ति कुछ भेद न समझ कर भय से ऐसे निस्तेज हो गये थे कि उन्होंने बिना कुछ कहे-सुने बन्धन स्वीकार कर लिया। हम लोग उन्हें उसी अवस्था में, उनके मुँह बन्द किये, उनके देवता के समीप ले आये और उनकी आँखों के सामने उस भयानक मूर्ति को अलकतरा, तेल और बारूद से पोत कर के उसमें आग लगा दी।
इस काम को इस तरह पूरा करके हम लोग रातोरात अपने दल में आ मिले और यात्रा का सामान दुरुस्त करने लगे जैसे हम लोग बड़ी शान्त-प्रकृति के मनुष्य हो, कुछ जानते ही नहीं। हम लोगों पर किसी ने कुछ सन्देह भी नहीं किया।