कोई एक मील पर थी । जहाज़ तब भी सीधा खड़ा था ।
यह देख कर मुझे बड़ा ही आश्चर्य हुआ । मैंने वहाँ तक
जाने का इस लिए विचार किया कि यदि जहाज़ पर कोई
आवश्यक वस्तु मिल जायगी तो ले आऊँगा ।
मैंने पेड़ पर से उतर कर देखा कि मेरे दहनी ओर, अन्दाज़न दो मील पर, सूखी ज़मीन पर हमारी नाव पड़ी है । मैं उसी ओर जाने लगा । समीप जाकर देखा, मेरे और नाव के बीच में आध मील चौड़ी एक खाड़ी है जिसमें पानी भरा है । तब नाव तक जाने की आशा छोड़कर मैंने पैदल ही जहाज़ देखने के लिए जाने का विचार किया । इसलिए वहाँ से लौट आया ।
दोपहर के बाद समुद्र स्थिर हो गया । भाटे के कारण जल इतना कम हो गया कि मैं जहाज़ से पाव मील दूर तक सूखी ज़मीन पर होकर ही गया था । वहाँ पहुँचने पर फिर मेरे मन में नया दुःख हुआ । यह सोच कर मुझे अत्यन्त खेद हुआ कि हम लोगों ने जहाज़ को छोड़ कर नाव का सहारा क्यों लिया । हम लोग यदि जहाज़ ही पर रहते तो कोई भी डूब कर न मरता । मैं भी संगी-साथियों से बिछुड़ कर ऐसी दुर्दशा में न पड़ता, सब लोग बिना किसी विघ्न-बाधा के किनारे आ जाते । मारे सोच के मैं रो पड़ा । किन्तु उस समय रोना निष्फल जान कर मैं जहाज़ पर जाने की चेष्टा करने लगा । कोट-पतलून खोलकर मैंने धरती पर रख दिया फिर मैं पानी में घुस गया ।
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