रामचन्द्रिका सटीक । में जासही माणिनके अनेकरूपों लोभ घसत है अर्थ जहा जातही प्राणिन के रहिये को लोभ षाढत है औ बहुत पकन कमल श्री हसादि पक्षी विरा- जत है से रामचन्द्रको देखिकै लजित होत हैं जा अगको जो उपमान है ता अगको निरखि अपनासों अधिक जानि लजात हैं ४५ ॥ ४६॥ विजयछंद ॥ सुंदर श्वेत सरोरुहमें करहाटक हाटककी युतिकोहे । तापर भौंर भले मनरोचन लोकविलोचनकी रुचिरोहै। देखि दई उपमा जलदेविन दीरघ देवनके मन | मोहै । केशव केशवराय मनो कमलासनके शिर ऊपर सोहै ४७ ॥ लक्ष्मण-सवैया॥ मिलि चक्रित चंदन वात बहै भति मोहत न्याय नहीं मतिको । मृगमित्र विलोकत चित्त जरै लिये चंद निशाचरपद्धतिको प्रतिकूल शुकादिक होहिं सबै जिय जाने नहीं इनकी गतिको । दुख देत तडाग तुम्हें न बने कमलाकर है कमलापतिको ४८॥ सरोरुह कमल फरहाटक सिफाकन्द हाटक सुवर्ण लोकके लोचनकी रुचि कहे इच्छाको रोहै कहे धारण करत है अर्थ जिनको देखि सबके लोचननमें सदा देखिबेकी इच्छा होति है अथवा लोकके लोचनकी रुचि शोभा रोहत है अर्थ लोचन सम शोभत है केशवराय विष्णु कमलासम ब्रह्मा श्वेतकमल सोई ब्रह्माको आसन कमलसम है करहाटक ब्रह्मासम पीतवर्ण है भ्रमर विष्णुसम है ४७ पपासर सो लक्ष्मण कहत हैं कि चदन- वात जो इनकी मतिको मोहत है मूच्छित करत है सो न्यायही सों काहेते चदनवृक्ष में लपटे जे अनेक चक्री सर्प हैं तिनसों मिलिक स्पर्श करिके घहत है सो सपनके संगको फल है सर्पहू जाको काटत हैं ताको मूछित करत हैं अतिपति स मृगकी अक में धरे हैं तासों मृगामित्रपद को सो सग मित्र जो चन्द्र है ताको गिलोइनको चित्त जरत है सोऊ न्यायही है काहेते निशाचरनकी पद्धति परिपाटीको लिये है निशाचर राक्षसह हैं चन्द्रह हैं सो निशाचरनकी राक्षसनकी परिपाटीको लिये है राक्षसनईको देखतही चित्त जरत है औ मृगमित्र कहि या जनायो कि पशुनको मित्र
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