रामचन्द्रिका सटीका १२६ सात कहे उत्तममार्ग यथोचित कुलागनन की रीति औ राजमार्गादि ग्रामने प्रामानर की राह इति कि लोभ श्री महामद औ माहसों छयी मति बुद्धि है वर्षा द्विजराज चन्द्रमा श्री सुमित्र सूर्य तिनके दोषमयी है अर्थ चन्द्र सूर्यको उदय नहीं होन पावत औ मति द्विजराज प्रामण श्री सुष्टुमित्र इनके दोषमयी है यासों या जानो लोभ मद मोहयुक्त पाणी मित्रदोष द्विज दोष करत नहीं डरत २१ विषम कहे भयानक जो गाढ़तम अधकार है | ताकी सृष्टि कहे वृद्धि में मिथ्या दृष्टि भई जैसे कुपुरुष की सेवा में होति है तैसी सकल कवि पर्णत हैं अर्थ जब कुपुरुष सेवा फोऊ करत है तब वाहि यह देखि परत है कि कछू पाय हैं जब कछू ना पायो तब पूर्णदृष्टि मिथ्या होतभई तैसे जा दृष्टिसों सब विषय पदार्थ देखि परत हैं साही दृष्टिसों वर्षाधकार में निकट गत वस्तु नहीं देखियत पूर्णष्टि मिथ्या होति है २२ अनरूपक कहे प्रतिमा जा वस्तुके वियोगसों विकलता हाति है ताकी प्रतिमा देखि कछू घोष होत है यह जो हमारो कराल कई भयानक काल | कहे समय है जामें सीयवियोगादि दुःख भये ताही काल वर्षाको व्याजकरि | हमको दुःख देवेको तिनहुन कलहसादिकन को दूरि कीन्हा २३ ॥ दोहा ॥ बीते बरषाकाल यों भाई शरद सुजाति ॥ गये अँध्यारी होति ज्यों चारु चाँदनी राति २४ मोटनकछेद ॥ दंतावलि कुदसमान गनो। चद्रानन कुतल चौरचनो ॥ भौहें धनु खंजन नैन मनोराजीवनि ज्यों पद पानि भनो २५ हारावलि नीरज हीपर में। हैं लीनपयोधर अबर में। पाटीर जोन्हाइहि अंग धरे। हसीगति केशव चित्त हरे २६ श्रीनारद की दरशै मतिसी । लोपै तमताप अकीरतिसी॥ मानौ पतिदेवनकी रतिको । सतमारगकी समुझे गति को २७ ॥ सुनाति कहे उत्तम २४ दैछद को अन्वय एक है शरदको स्त्रीरूपकरि कहत है कुदके जे पुष्प हैं तेई दतनकी अवली पगति हैं कुद शरत्काल में फूलत है यह कवि मियम है श्री चन्द्रमा जो है सोई आनन गुख है चन्द्रमा वर्षा के मेघनमें यो रहत है शरत्काल में प्रकाशित होत है औ सब राजा शरत्काल में पूजन करि धनुष चामरादि धारण करत है सो चौर जे हैं तेई
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