पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/१४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१४२ रामचन्द्रिका सटीफ। दाता है औ अतिमूल्याधिक्य सो जाके पास रहै ताको यशदाता है भो रस कहे प्रेमको दाता है अर्थ रामचन्द्र प्रति मेम बहाधनहारी है "शृंगारादौ विषे वीर्ये गुणे रागे द्रवे रसः इत्यमरः " ८३ बहुबरणा कहे बहुत हैं। बरण रंग भक्षर जिनके श्री सहज मिया दुवो हैं तमगुण अधकार औ भज्ञान सूरजकिरण जगके मारग राह देखावत हैं श्रौ मुद्रिकाहू जगमारग दरशावनी है काइते जहाँ रामचन्द्र हैं तहां की राह देखायो जा मारग है, हमारो मन रामचन्द्र के निकट गयो दोहा क्षेपक है ८४ ॥ श्रीपुरमें वनमध्य हों तू मग करी अनीति । कहि मुंदरी अब तियनकी को करि है प्ररतीति ८५ पद्धटिकाछंद ।। कहि कुशल मुद्रिके समगात। पुनि लक्ष्मण सहित समान तात ॥ यह उत्तर देति न बुद्धिवंत । केहि कारण धौ हनुमंत संत ८६ हनुमान-दोहा ।। तुम पूंछत कहि मुद्रिकै मौन होति यहि नाम ॥ कंकणकी पदवी दई तुम बिन याकहँ राम ८७ दडक ॥ दीरथ दरीन बसें केशोदास केशरी ज्यों केशरी को देखि वनकरी ज्यों कँपत हैं। वासरकी सपति उलूक ज्यों न चितरत चकवा ज्यों चंद चितै चौगुनो चपत हैं । केका सुनि व्याल ज्यो बिलात जात घनश्याम घननके पोरन जवासो ज्यो तपत हैं। भौर ज्यों भक्त वन योगी ज्यों जगत रैनि साकत ज्यों रामनाम तेरोइ जपत हैं ८८॥ श्री जो राज्यश्री है तेहि पुरमें अयोध्या में रामचन्द्रको छोड़ि दियो औ धनके मध्य में हम छाड्यो राम हमैं तू बांडयो सो हे मुन्दरी कहौ तियन की| अब को परतीति करि है अर्थ कोऊ ना करिहै ५। ८६ तुम्हारे विरहसों रामचन्द्र ऐसे दुर्बल भये हैं जासों याको कंकण के स्थानों पहिरत है,इनि | भावार्य ८७ सीताजसों हनुमान करना है कि हे सीता ! तुम्हारे विरहसा रामचन्द्र ऐसी दशाको पाप्त ई कि दीरय दरीनमें केशरी जो सिंह है ताके समान बराम हैं जैसे सिह भूमिही में सोबत बैठत है कल शयनाद सुखकी इन्छा नहा करत तैसे रामचन्द्र में भी केशरी पदश्लेष है करी को हस्ती