रामचन्द्रिका सटीक । १७३ भा। परद्रव्य छो. परस्त्राहि लाजै॥ परद्रोह जासों न होवे रतीको । सकेसे लरें वेष कीन्हें यतीको २८ दोहा ॥ गेंद करेउ मैं खेलको हरगिरि केशवदास ॥शीश चढाये थापने कमल समान सहास २६ ।। जे रामचन्द्र गाइ श्री विभको डरात हैं अर्थ अतिदीन गाइ श्री विन तिनहू को डरात हैं तासों प्रति कादर हैं औ अनाथ जे पाणी हैं जिनको | नाथ कोऊ नहीं है ताहीको भनें कहे सेवन करत हैं अर्थ ताहीसों संग करत हैं यासों या जनायो कि भयसों रचकहू परद्रव्य नहीं ले सकत हमारो राज्य कैसे ले हैं औ परस्त्री को लजात हैं यासों या जनायो कि जे स्त्री को लजात हैं ते वीरन सों कहा धृष्टता करिहैं औ जिनसों परद्रोह कबहू रतीह भरि नाही हैसकत आशय कि शत्रुता करते डरात हैं औ | ताहू पर वेष यती वपस्वी को धरे हैं अर्थ वेषहू वीरको नहीं है सो मोसों कैसे लरि सरस्वती उतार्थ. मर्यादापुरुषोत्तम हैं तासों ब्रह्मशाप गोशाप को डरात हैं भृगुलातहू माखो ताहू पर कछू नाकरयो अनाथ जे प्रहलाद | गजादि है तिनके निकटही रहे जा भांति कष्टमयो ताही विधि निकटवर्ती | सम रक्षा कियो ौ परद्रव्य परस्त्रीहरणमों पाप होत है तारों स्याग करत हैं औ परद्रोह जासों रतीहू भरि नाही होत यासों समदर्शी जानौ सबको समान जानत हैं तिनसों हम कैसे लरै अर्थ वै ईश्वर हैं बेष कहे रूपमात्र यती को कीन्हें हैं २८ । २६।। अंगद-दडक ॥जैसो तुम कहत उठायो एक गिरिवर ऐसे कोटि कपिनके बालक उठावहीं काटे जो कहत शीशकाटत घनेरेघाघ भग्गारके खेले कहा भटपद पावहीं॥ जीत्यो जो सुरेशरण शाप ऋषिनारिही को समुझड हम द्विज नाते | समुझावहीं । गहौ रामपाय सुखपाय करें तपी तप सीताजू को देहु देवदुन्दुभी बनावही ३० रावण-वंशस्थावद ॥तपी जपी विपनि छिपही हरौं । अदेवदेषी सब देव संहरों ॥ सिया न देहों यह नेम जी धरों। अमानुषी भूमि अवानरी
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