२७४ रामचन्द्रिका सटीक । करौं ३१ अगद-विजयछद ॥ पाहनते पतिनी करि पावन टूक कियो हरको धनुकोरे । छत्रविहीन करेउ क्षणमें क्षिति गर्व हत्यो तिनके बलकोरे ॥ पर्वतपुंज पुरैनिके पात समान तरे अजहू धरकोरे । हो: नरायणहू पैन ये गुण कौन इहां नर वानर कोरे ३२ रावण-चंचरीछद ॥ देहिं अगद राज तो कह मारि वानरराजको । बांधि देहिं विभीषणै अरु | फोरि सेतु समाजको ॥ पूंछ जारहिं अक्षरिपुकी पाहू लागर्हि रुद्रके । सीयको तब देहुँ रामहि पारजाह समुद्रके ३३ ॥ घाप कहे नटादि इंद्रजालिक ३० सरस्वती उतार्थः हे अंगद ! हौं केशव हो कि तपी ओ पी जे विम हैं अथवासपी औं जपी विपनको लिमही हरों कहौं कि तपी औं पी जे विष है अथवा नामें कालू विचार नहीं फरत औ अदेवजे दैत्य जे राक्षस है निन द्वेषी शनु देवना हैं तिन्हें क्षिमही सहरस ही कहे मारत हो यासों ही बढ़ो पापी हौं सो सियाको न देहों यह नेम जो जीम धरत हो सा श्रर कहे या समय मा अमानुषी कहे | गाही हैं मनुष्य जहा भी अनरी कहे नाहीं है काऊ काहू को अरि शत्रु जहां एसी मो भूमि कहे स्थान है विष्णुलोक ताका करौं हे साधत हौं भूमि शिनौ स्थानपात्रे इत्यभिधानचिन्तामणि' ' ब्रह्मदीप देवदापादि बडे पातकनमों द्रटिको उपाय और नहीं है तासों सीताको नहीं देतो कि सीता के लिये भाइ रामचन्द्र मोहि मारिहैं तो सब पातकन सों टिक विष्णुलोक जैहो इति भावाय. ३१ अजहू कहे अबहू अर्थ एतेहूपर तौ घरको कहर करी ३२ सरस्वती उन्नाथ याम महस्तादि मनिन मति | काकोलि है रावण कहन है कि हे अगढ 'नुम तो नीकी शिख देतही परत प्रहस्त आदि मत्रिन फरिदी कर्मवश मेरी ऐमी दुर्मति है कि जब रामनन्द्र एती धान कर तब सीताको दहुँ सो ऐमो काहे को करि है नासों दुगी कृत हमारी मृत्यु विशेष सों है की यह निश्चय जान्या ३३ ॥ अंगद-लक लाय गयो बली हनुमन सत न गाइयो। सिंधुवांधत शोधिक नल क्षीरलीट बहाइयो । ताहि तोहिं
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