१६६ रामचन्द्रिका सटीक। सरस्वती उतार्थः ॥ काकोक्तिसों कहत है कि हे महाराज ! अब लका में सुभ सदा राज किया करौ महाराज पद कहि या जनायो कि मत्रको त्यागकरि प्रभुतासों अपने मनही की पात कस्यो श्री जैसे कुभकर्णादिकन को सबको विदा कियो है तैसे मेरीहू बिदा करौ हौ युद्ध करौ जाइ औ तुम्हारी आज्ञा के सदृश जैसे कुभकर्णादिकन बंधु सहित राम श्री सुग्रीवको मारि राजधानी अयोध्या में सुधारयो है तैसे हौंहू बधु सहित राम श्री सुग्रीव को मारिकै राजधानी अयोध्या में सुधारौं जैसे सब मरि गये हैं तैसे होहू मरौं नाइ इति व्यंग्यार्थः १० । ११ विभीषण गदा मात्यो ताको उरके जोरसों ठेलिकै लक्ष्मणके कंठमें काले सर्पके समान भुजा मेलात भयो १२ कि शशी को दिवि आकाश में भूतल में पाइकै अर्थ स्थानच्युत अवल जानिकै स्वाभाविक शत्रुता सो गाड़ो को बहुत जो अधकार है लाने लीलिलियो है औ कि राहु ने प्रस्तास्त कीन्हों है शशी | सम लक्ष्मण हैं अंधकार श्री राहु सम मकराक्ष है जब गकराक्ष को शस्त्रास्त्र | सौ मरण ना जान्यो तब हाथन सो कसिकै गाड़े जो गहे रहै ताही समय | शीघ्रता सो लक्ष्मणजी बाद कहे स्थूलकाय हैकै राक्षस के अशेष सम्पूर्ण श्रग विदारे कहे विदीर्ण कीन्हे अर्थ फारि दारे ऐसी शीघ्रता सो लक्ष्मण आपने अङ्ग स्थूल पिये विमा क्ष जो हस्त ग्रहण करे रहै सो हस्त गमण या यूटनपायो सों वक्षस्थल फारि गयो अधिदेव गदि भी आदिदेव पाठ दोइ नौ ब्रमादि जानी यह छ- छ चरण से है १३ । १४॥ दोहा ॥ जूझतही मकराक्षके रावण अतिदुखपाइ ॥ सत्वर श्रीरघुनाथपै दियो बमीठ पठाइ १५ सुदरीबद ॥ दूताहि देखतही रघुनायक । तापहँ बोलि उठे सुखदायक ॥ रावणके कुशली सुत सोदर । कारज कौन कर अपने घर १६ दुत-विजयबाद ।। पूजि उठे जवहीं शिवको तवहीं विधि शुक बृहस्पति पाये । के विनती मिस कश्यपके तिन देव अदेव सबै बक्साये ॥ होमकि रीति नई सिखई कछु मत्र दियो श्रुतिलागि सिखाये । हाँ इतको पठयो उनको उत लै प्रभु मदिर माझ सिधाये १७ ॥
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