पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/२१५

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रामचन्द्रिका सटीक । २१३ लेखी॥ सबै वृक्ष मदारहूते भले हैं। छहू काल के फूल फूले फले हैं ३५ कहू हसिनी हंसमों चित्तचोर ।चुने भोसके बूद मुक्तानि भोरै ।। शुकाली कहू सारिकाली विराजें। पढ़ें वेद मत्रावली भेद साजै ३६॥ कुगध पदते पातक जानौ ३४ महादेवकी वाटिकासी बनी चित्तमें लेख्यो मदार कल्पवृक्ष विशेष छहू काल छहू ऋतु ३५ कहू इससों कहे इस सहित | हसिनी मुक्तानि के भोरै कहे भ्रमों ओस के बुद चुनती हैं सो सब के चित्त को चोरावती हैं यासों हंसनकी मदमत्तता जनायो वेदमत्रावली के जे भेद साजै हैं तिन्हें पढ़ती है अर्थ अनेक प्रकारके मत्र ऋषिन के पढ़त सुनत हैं सिने शिष्य ताही विधि आप पढ़त हैं ३६ ॥ कहूं वृक्षमूलस्थली तोय पीवें । महामत्त मातंग सीमान छी । कहू विप्र पूजा कहूं देवअर्चा | कहू योगशिक्षा कहूं वेदचर्चा ३७ कहू साधु पौराणकी गाथ गाएँ । कहू यज्ञ की शुभ्र शाला बनावै ॥कहू होममत्रादिके धर्म धारें। कहू बैठिके ब्रह्मविद्या विचारै ३८ सुभाई जहाँ देखिये वक्र रागी।चले पिण्यलैतिक्षबुध्यै सभागी ॥ क श्रीफले पत्र हैं यत्र नीके। सुरामानुरागी सबै रामहीके ३६ ।। कहूं महामस मातग वृक्षनकी मूलस्थली कहे थान्हामें तोय जल पवित हैं। परंतु वक्षनकी नौ थान्हनकी सीमा मर्यादा नहीं छुक्त अर्थ वृक्ष औ थान्हन को तोरत विदारत नहीं है ३७ पौराणकी कहे अष्टादशपुराण संबधिनी ब्रह्मा- | विद्या वेदांत ३८ वक कहे मुख हैं रागी कहे अरुण जिनके ऐसे शुकही हैं और काहू ऋषिको मुख तांबूलरागयुक्त नहीं है यतीको तांबूल भक्षण निषिद्ध है तासों " विधवानां यतीना च ताम्बूलं ब्रह्मचारिणाम् । एकै मांसतुल्यं स्याम्मिलितं मदिरासमम् " सभागी कहे भाग्यवान अर्थ प्रति बद्भयुक्त प्रतिबड़े इति श्रीफल कहे कदली के जे पत्र हैं वेई जहां कापत हैं यासों या जनायो कि सभागी तो सब हैं ये और कोज काहू भयसों कैंपत