रामचन्द्रिका सटीक । २६७ छंद ॥ तुम हौ अनंत अनादि सर्वग सर्वदा सर्वज्ञ । अब एक हो कि अनेक हौ महिमा न जानत अज्ञ।। भ्रमियो करें जग लोक चौदह लोभमोहसमुद्र । रचना रची तुम ताहि जानत हौं न ब्रह्म न रुद्र २॥ १ सर्वग कहे सर्वत्र व्याप्त लोभ मोहके समुद्र अर्थ लोभ मोहसों भरे जे चौदह लोक कहे चौदही लोकके प्राणी जा रचनामें भ्रमिवो करत हैं अर्थ संदेह को प्राप्त भयो करत हैं ता रचना को नहीं जानन हौं न ब्रह्म | वेद जानत हैं न रुद्र जानत हैं अथवा चौदही लोकमें लोभ श्री मोहके | समुद्र में हम भ्रम्यो करत हैं तासों तुम्हारी रचना को नहीं जानत २॥ शिव-दंडक ॥ अमल चरित तुम वैरिन मलिन करौ साधु कहें साधु परदारप्रिय अति हो । एक थल थित पैब- सत जग जनप्रिय केशोदास द्विपद पै बहुपद गति हो। भूषण सकलयुत शीश धरे भूमिभार भूतल फिरत पै अभूत भुवि पति हो । राखौ गाय ब्राह्मणन राजसिंह साथ चिर रामचन्द्र राज करौ अदभुत गति हो ३ इंद्र ॥ वैरी गाय ब्राह्मण को ग्रंथन में सुनियत कविकुलहीके सुवरणहरकाज है। गुरुशय्यागामी एक बलकै विलोकियत मातंगनहीं के मतवारे कैसो साज है ॥ अरिनगरीन प्रति होत है अग- म्यागौन दुर्गनहिं केशोदास दुर्गतिसी आज है । देवताई देखियत गढ़नि गढ़ोई जीवो चिरचिर रामचन्द्र जाको ऐसो याहू में विरोधाभास है अमल निर्मल चरितन सों वैरिन को मलिन करख हौ इत्यर्थः पर कहे उत्कृष्ट दार अर्थ लक्ष्मीजू " राघवत्वे भवेत्सीता रुक्मिणी कृष्णजन्मनीति पुराणात् " जा भूमिको शीशमे धरे हैं ताहीपर फिरिवो विरोध है गाय सदृश जे ब्राह्मण हैं तिनहूं को राखत हौ रक्षा करत अथवा गाय औ ब्राह्मणन को राखत हौ औ राजसिंह कहे राज-
पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/२६७
दिखावट