पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/२७१

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रामचन्द्रिका सटीक । २७१ करत हो अर्थ रतिकी लालसा करत हो औ मदनको मदघालक हो यह आश्चर्य है ताही सोदर के लिये अर्थ भरत के लिये राज्यही छोड्यो इति शेषः १३ मंथरा कूबरी १४ व्यग्र विकल अनेक स्थाननमों इति शेषः भ्रमत कहे घूमत तौ सर्वग औ सर्वज्ञकी अज्ञसम स्थल ढूँढ़िबो आश्चर्य है औ सर्वदा एकरस कहे आनंदरूप जो रहनि है ताको विकल हैबो आश्चर्य है लक्ष्य निशाना वार कहे चोट १५ । १६ निगरु कहे हरुये पान पात्र १७ ॥ वाजि गज रथ वाहिनी चढ़ि चलत श्रमित सुभाय । लंक में बिन पानहीं निज गये अपने पाय ॥ यज्ञको फल ग- हत यत्ननि यज्ञपुरुष कहाय । बैर जूठे दियो शबरी भक्षियो सुख पाय १८ कुसुमकंदुक लगत कांपत मूदि लोचन मूल । शत्रुसन्मुख सहे हँसि हँसि शैल असि शर शूल ॥ दुरि क- रत न दया दर्शत देर दंशत दंश । भई वार न करत रावण वंशको निर्वंश १६ वाण बेझहि अानको लगि नाम अपनो लेत । कालसों रिपु आपु हति जयपत्र औरहि देत ॥ पुण्य- कालन देत विप्रन तौलि तौलि कनङ्क । शत्रुसोदरको दई सब स्वर्णही की लङ्क २० होइ मुक्त सो जाहि इनको मरत आवै नाम । मुक्त एक न भये वानर मरे करि संग्राम ॥ एक पल बिन पान खाये वारबार जम्हात । वर्ष चौदह नींद भूख पियास छोड़ी गात २१ क्षमे बरु अपराध अपने कोटि कोटि कराल । अपराध एक न क्षम्यो गोदिजदीनको सब काल॥ यदपि लक्ष्मण करी सेवा सर्वभांति समेव । तदपि मानत सर्वथा करि भरतहीकी सेव २२ ॥ १८ कुसुम जे फूल हैं तिनको कंदुक गेंद १६ बेझहि निशाना २० मुक्त कहे मुक्ति औ मरे २१ छंद उपजाति है २२ ॥ कहत इनको सर्व सांचे सकल राना राय । तनक सेवा दासकी कहैं कोटिगुणित बनाय ॥ डरन यक अपलोकते ये