पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/३२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामचन्द्रिका सटीक। ३२७ जानो॥ कौन दंड द्विजको दिज दीजै । चित्तचेति कहिये सोइ कीजै १३॥ पुर कहे ७।८।६।१०। ११ । १२ हे ब्रह्म ऋषिराज जो वेद वदै है ताके मतसों बखानो कहौ १३ ॥ कश्यप ॥ है अदंड्य भुवदेव सदाई । यत्र तत्र सुनिये रघुराई ॥ ईश शीप अब याकहँ दीजै। चूकहीन अरि कोउ न कीजै १४ राम-तोमरछंद ।। सुनि श्वान कहि तू दंड। हम देहिं याहि अखंड ॥ कहि बात तू डर डारि। जियमध्य श्रापु विचारि १५ श्वान-दोहा ॥ मेरो भायो करहु जो रामचन्द्र हितमंडि । कीजै दिज यहि मठपती और दंड सव छडि १६ निशिपालिकाछंद ॥ पीत पहिराइ पट बांधि शिर सों पटी। बोरि अनुराग अरु जोरि बहुधा गटी ॥ पूजि परि पाएँ मठ ताहि तबहीं दियो । मत्तगजराज चढ़ि विप्र मठ को गयो १७ दोहा ॥ भयो रंकते राज द्विज श्वानकीन कर- तार ॥ भोगन लाग्यो भोगवै दुंदुभि बाजत द्वार १८ सुंदरी छंद ॥ बूझत लोग सभामहँ श्वानहिं । जानत नाहिंन या परिमानहिं ॥ विप्रहि जो दई पदवी वह । है यह निग्रह के धौं अनुग्रह १६ श्वान-दोधकछंद । एक कनौज हुतो मठधारी । देव चतुर्भुजको अधिकारी ॥ मंदिर कोउ बड़ो जब पावै । अंग भली रचनानि बनावै २० जा दिन के- शव कोउ न श्रावै। तादिन पालिक ते न उठावै ॥ भेटनि लै बहुधा धन कीनो। नित्य करै बहुभोग नवीनो २१ एक दिना यक पाहुन पायो । भोजन तो बहुभांति बनायो । ताहि परोसन को पितु मेरो। बोलि लियो हित हो सब