पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/३४२

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३४६ रामचन्द्रिका सटीक । को किधौं जीवप्रभाको॥ है जड़ देह कहै सब कोई । जीव | सो बालक वृद्ध न होई ११ जीव जरै न मरै नहिं छीजै। ताकहँ शोक कहा करि कीजे॥जीवहि विप्रन क्षत्रिय जानो। केवल ब्रह्म हिये महँ आनो १२ जो तुम देहु हमैं कछु शिक्षा। तौ हम देहिं तुम्हें यह भिक्षा | चित्त विचार परै सोइ कीजै। दोष कछू न हमैं अब दीजै १३ स्वागताछंद ॥ विष बालकन की सुनि बानी । क्रुद्ध सूरसुत भो अभिमानी १४ सुग्रीव ॥ विप्रपुत्र तुम शीश सँभारो । राखि लेहि अब ताहि पु. कारो १५ लव-गौरीछंद ॥ सुग्रीव कहा तुमसों रणमांडों। तोको अतिकायर जानिके छांड़ों।बालि तुम्हें बहुनाच न- चायो । कहा रणमंडन मोसन आयो १६ ॥ भरत मुनिवालक पद कह्यो है तासों कुश यह कहत हैं ११ । १२ शिक्षा दै हमारो बोध करो इत्यर्थः १३ । १४ छंद उपनाति है १५ फल कहे गांसी ता बाणके लागे बात सम अर्थ औ उर सम बहुत भ्रमत भये औ मुरझात भये १६॥ तारकछंद ॥ फलहीन सो ताकहँ बाण चलायो । अति- वातभ्रम्यो बहुधा मुरझायो ॥ तब दौरिकै बाण विभीषण लीन्हो । लव ताहि विलोकतही हँसिदीन्हो १७ सुन्दरी छंद ॥ आउ विभीषण तू रणदूषण । एक तुहीं कुलको कुलभूषण ।। जूझ जुरे जे भले भयजीके । शत्रुहि आइ मिले तुम नीके १८ दोधकछंद ॥ देववधू जवहीं हरिल्यायो। क्यों तबहीं तजि ताहि न आयो । यों अपने जियके उर आये । क्षुद्र सबै कुलछिद्र बताये १६ दोहा ॥ जेठो भैया अनंदा राजा पितासमान ॥ ताकी पत्नी तू करी पत्नी मातु समान २० को जानी कै बारतू कही न है माइ॥सोई तैं पत्नी