पृष्ठ:रामचंद्रिका सटीक.djvu/३४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामचन्द्रिका सटीक । ३४६ जीतिकै ता समयसों क्रोधाग्निसों जरत चित्तरूपी. जो चिता है ताको बु- माओ औ रघुवांशिन सों युद्धकरि पिताको तिलोदक देन कह्यो है सो देउ अथवा हमारे ही पुत्र हैकै हमारे अश्वांधि वृथा युद्ध करयो ताक्रोध सों जरत जो चित्तरूपी चिता है ताको बुझाओौ पिनाको निलोदक देहु ८१६॥ लव ॥ अंगद जो तुम वल होतो । तौ वह सूरजको सुत कोतो॥ देखतही जननी जोतिहारी। वासँग सोवति ज्यों वरनारी १० जादिनते युवराज कहाये । विक्रम बुद्धि विवेक बहाये ॥जीवतपै कि मरे पहँ जैहै। कौन पिताहि तिलोदक दैहै ११.अंगद हाथ गहै तरु जोई।जात तही तिलसों कटि सोई ॥ पर्वतपुंज जिते उन मेले । फूलके तूललै वाणन झेले १२ बाणन बेधि रही सब देही । वानर ते जो भये अव सेही॥ भूतलते शरमारि उड़ायो । खेलिके कंदुकको फल पायो १३ सोहत है अध ऊरध ऐसे । होत वटा नटको नभ जैसे ॥ जान कहूं न इतै उत पावै । गोबलचित्त दशोदिशि धावै १४ बोल घट्यो सो भयो सुरभंगी। बैगयो अंग त्रिसंकु को संगी॥ हा रघुनायक हौं जन तेरो। रक्षहु गर्व गयो सव मेरो १५.दीन सुनीजनकी जब बानी।जो करुणा लव बाण न पानी ॥ छोडिदियो गिरिभूमि पखोई । विह्वलहे अति मानो मखोई १६॥ वरनारी अर्थ विवाहिता स्त्री १० जो रामचन्द्र कहो कि इनको जीतिक प्राजु पिता को तिलोदक देहु सो सुनिकै लव कहत हैं कि हमको जीतिक जो तिलोदक तुम देही सो जीवत पिता जे सुग्रीव हैं तिनको प्राप्त हैहै कि | मरे पिता जे बालिहैं तिनको प्राप्त हैहै ११ झेले दूरि किये १२ सेही सल्ल की नाम वनजंतु विशेष १३ । १४ त्रिशंकुको संगी अर्थ त्रिशंकुसम शीश नीचे चरण ऊपर भये १५ । १६ ॥ विजयचंद ॥ भैरवसे भट भूरि भिरे बल खेतखड़े करतार