पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१००२

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fatt nga पष्ट लोपान, लङ्काकाण्ड । १२७ हो। प्रभु रामचन्द्रजी फो ऐसी टेढ़ी चितवन से उसने देखा, मानों तीने लोकों को प्रसना चाहता हो ॥६॥ दो-करि चिक्कार बार अति, धावा बदन पसारि । गगन सिद्ध सुर त्रासित्त, हा हो होति पुकारि ॥७॥ बड़ा विकराल चीत्कार कर के मुँह फैलाकर दौड़ो । मोकाशमें सिद्ध और देवता डर गये, हाय हाय की पुकार होने लगी ॥७०॥ चौ०-सभय देव करुनानिधि जानेउ । सवन प्रजन्त सरासन तानेउ । बिसिख निकर निसिचिर मुख भरेऊ । तदपिमहाबल भूमि न परेऊ॥१॥ करुणानिधान रामचन्द्रजी ने देवतायो को भयभीत जान कर कान पर्यन्त धनुष को ताना । असंख्यों घाण उसके मुंह में भर दिये, तो मी महा बलवान कुम्भक्षर्ण भूमि पर नहीं सरन्हि भरा मुख सरुलुख धावा । काल-त्रोन सजीव जनु आवा ॥ तब प्रभु कोपि तीन्न सर लीन्हा । धर तें मिन तासु सिर कीन्हा ॥२॥ याणों से भरा हुमा मुख सामने ऐसा दौड़ा, मानो सजीव काल रूपी तरकस आया हो। तब प्रभु रामचन्द्रजी ने शोध कर के पैने पाण लिए और सिर काट के उसका धड़ से अलग कर दिया ॥२॥ तरफ सजीव होना प्रसिद्ध आधार है, इस अदेतु को हेतु उहराना प्रसिद्ध विषया हेतृत्प्रेक्षा अलंकार' है। सो सिर परेउ दसानन ओगे। विकल मयउ जिमि फनि मनि त्यागे। धरनि धसइ धर धाव प्रचंढा। तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खंडा ॥३॥ वह सिर रावण के सामने गिरा, देखते ही ऐसा व्याकुल दुनो जैसे मणि खो जाने पर सर्प व्याकुल होता है। कुम्भकर्ण का धड़ रणभूमि में खूब ज़ोर दौड़ता है जिस से पृथ्वी धंसी जाती है, तब प्रभु रामचन्द्रजी ने काट कर दो टुकड़े कर दिये ॥३॥ परे भूमि जिलि नम तें भूधर । हेठ दाबि कपि भालु निसाचर ॥ तासु तेज प्रभु बदन समाना । सुर मुनि सबहिँ अचम्भव माला ॥४॥ दोनों खण्ड भूमि पर ऐसे गिरे जैसे आकाश से पहाड़ गिरे हो, उसके नीचे वानर, भालू और राक्षस व गये। उसका तेज (जीवात्मा) प्रभु रामचन्द्रजी के सुरा में समा गया, यह देख कर देवता, मुनि सभी ने आश्चर्य माना ॥४॥ सुर दुन्दुभी बजावहिँ हरपहि । अस्तुति करहिं सुमन बहु बरपढ़ि। करि बिनती सुर सकल सिधाये। तेही समय देवरिषि आये देवता हर्ष से दुन्दुभी जाते हैं और स्तुति कर के बहुत सा फूल बरसाते हैं । सब देवता विनती कर के चले गये उसी समय नारद जी आये ॥५॥ । ॥३॥ 1