पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१००३

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२८ रामचरित मानस । गगनोपरि हरि-गुन-गन गाये । रुचिर धीररस प्रभु मन भाये ॥ बेगि हतहु खल कहि अनि गये। राम समर-महि सोहत भये ॥६॥ ऊपर ही ऊपर आकाश ले सुन्दर वीररस मय भगवान के गुण गान किये जो प्रभुराम. चन्द्रजी को मन में सुहाये । दुष्ट को शीघ्र मारिये, ऐसा कह कर मुनि चले गये और रामचन्द्र जी समर-भूमि में शोभित हो रहे हैं ॥१॥ हरिगीलिका-छल्द । सलामभूमि बिराज रघुपति, अतुल बल कोसल धनी । सममिन्दु मुख राजीव लोचन, अरुन तन सेोनित कनी ॥ झुज जुगल फेरत सर सरासन, मालु कपि चहुँ दिसि बने । कह दास तुलसी कहि न सक छबि, सेष जेहि आनन • धने ॥३॥ असीम वलवान अयोध्या के राजो रघुनाथजी रणभूमि में विराजमान हैं। मुख पर पलीने की चूद, लाल-कमल के समान नेत्र और शरीर पर रक्त के छोटे शोभा दे रहे हैं। दोनों हाथों में धनुष-बाण फेरते हैं और चारों तरफ भालू यन्दर विद्यमान हैं । तुलसीदासजी कहते -उस शोभा को शेप भी नहीं कह सकते, जिनके बहुत मुख हैं ॥३॥ दो-निखिचर अधम मलाकर, ताहि दीन्ह निज धाम । गिरजा ते नर मन्दमति, जे न भजहिँ श्रीराम ॥१॥ शिवजी कहते हैं-हे गिरिजा राक्षस अधम पाप की खान, उसको अपना लोक (बैकुण्ठ वास) दिया। वे मनुष्य नीचबुद्धि हैं जो श्रीरामचन्द्र को नहीं भजते ॥७॥ हो०-हिन के अन्त फिरी दोउ अनी । समर भई सुभटन्ह सम धनी॥ राम कृपा कपिदलबल बाढ़ा । जिमि हन पाइ लाग अति डाढ़ा॥१॥ . दिन के अन्त में दोनों सेनाएं फिरी, आज के युद्ध में योद्धाओं को बड़ी थकावट हुई। रामजन्द्रजी की कृपा से बानरी सेना का ऐसा बल बढ़ा जैसे तिनका पा कर अमि खून प्रज्वलित होती है ॥३॥ छीजहिँ निसिचर दिन अरु राती । निज मुखकहे सुकृत जेहि भाँती ॥ बहु बिलाप दसकलधर करई । बन्धु सीस पुनि पुनि उर धरई ॥२॥ दिन और रात दाक्षस उस तरई छोजते (घटते) हैं, जिस तरह अपने मुख से कहने पर पुण्य क्षीण होता है। रोवर माई का सिर बार बार छाती से लगा कर बहुत विलाप करता है ॥२॥