पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१००९

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रामचरित-मानस । हनूमान और प्राद जैसे पराक्रमी योद्धानों के मारने पर घाव का न बजना अर्थात् कारण विद्यमान रहते हुए उसका फल न होना 'विशेषोक्ति अलंकार है। फिरे बीर रिपु मरइ न मारा। तत्र धावा करि घोर चिकारा । आवत हेखि क्रुद्ध जनु काला । लछिमन छाड़े बिसिख कराला ॥५॥ शत्रु मारने से नहीं मरता है (इससे हृदय में हार कर) क्षनों वोर लौट आये, तब मेध. नाद भीषण विग्घाड़ करके दौड़ा। ऐसा मालूम होता है मानो क्रोधित हुआ काल श्रोता हो, उसे आते देख कर लक्ष्मणजी ने विकराल बाण छोड़े ॥५॥ अहद और हनूमानजी के अपकर्ष वर्णन से लक्ष्मणजी के शुरत्व का उत्कर्ष व्यजित होना व्या है। देखेसि आवत पनि सम बाना । तुरत भयउ खल अन्तरधाना । बिबिध छेष धरि करइ लराई । कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई ॥६॥ वन के समान पाणों को प्राते देख कर यह दुध तुरन्त अदृश्य हो गया। अनेक रूप धारण कर के लड़ाई करता है, कभी छिप जाता और कमी प्रत्यक्ष होता है ॥६॥ देखि अजय रिपु डरपे कीसा। परम्म क्रुद्ध तब भयउ अहीसा ॥ एहि पापिहि मैं बहुत खेलावा । लछिमन मन अस मन्त्र दृढ़ावा ॥७॥ शत्रु को न जीतने योग्य देख कर वानर डरे, तम लक्ष्मणजी अतिशय क्रोधित हुए। । उन्होंने मन में ऐसा मन्त्र पक्का किया कि अब इसका संहार फर डालना चाहिये) इस पापी को मैं ने बहुत लाया ॥७॥ सुमिरि कोसलाधील प्रतापा। सर सन्धान कीन्ह करि दापा ॥ छाँड़ेउ बान माँझ उर लागा। भरती बार कपट सब त्यागा ॥ कोशलेश्वर रामचन्द्रजी का प्रताप स्मरण कर के क्रोध कर बाण धनुष पर चढ़ाया । ज्यों ही बाण छोड़ा वह छाती में लगो, मरती बेर उसने सब कपर छोड़ दिया ॥३॥ दो-रामानुज कहँ राम कह, अस कहि छाँडेसि प्रान । धन्य धन्य तव जननी, कह अङ्गद हनुमोन ॥६॥ लक्ष्मण कहाँ है ? रामचन्द्र कहाँ हैं ? ऐसा कह कर उसने प्राण त्याग दिया। अङ्गद और हनुमानजी ने कहा-तेरी माता धन्य है ! ॥७॥ चौ -बिनु-प्रयास हनुमान उठायो । लङ्का-द्वार राखि तेहि आयो। तासु मरन सुनि सुर गन्धर्धा । चढ़ि विमान आये नभ सर्वा ॥१॥ बिना परिश्रम ही उसको हनुमानजी ने उठा लिया और लङ्का के फाटक पर रख पाये ! उसका मरना सुन कर देवता और गन्धवं विमानों पर बढ़ कर सब आकाश में (जहाँ सधमणजी थे वहाँ) आये ॥१॥