पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०२०

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. षष्ठ शेपान, लङ्काकाण् । . दूसरे सारथी ने उसे रथ में बाल बार तुरन्त साझा को ले गया । प्रताप के शशि रघुनाथजी के भाई लौट कर स्वामी के चरणों में मस्तक नाय ॥१०॥ दो-उहाँ दसोगन जामि करि, करई लाग कछु जज्ञ। राम विरोध विजय बहत, सठ हठ-बरू अति-अज्ञ ॥६॥ वहाँ रावण जाग कर कुछ या करने लगा। वह हुष्ट हठी महा अज्ञानी रामचन्द्रजी से विरोध करके अपनी जीव चाहता है ! ॥४॥ चौ०-इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई। नाथ करइ रावन एक जागा । सिद्ध भये नहिँ मरिहि अागा॥९॥ यहाँ विभीषण ने सब खबर पा ली, उन्हों ने तुरन्त जा कर रधुनाथजी को सुगा दी कि-हे नाथ! रावण एक यज्ञ करता है, पूर्ण होने पर वह अभागा न मरेगा॥१॥ पठवहु देव बेगि मट बन्दर । करहिँ मिधंस आव दसकन्धर । प्रात होत प्रक्षु सुभट पठाये। हनुमदादि अङ्गद सब धाये ॥२॥ है देव ! शीन बन्दर वीरों को भेजिए, वे यज्ञ का नाश करें जिसमें रावण रणाइन में भावे। सवेरा होते ही प्रभु रामजी ने योद्धाओं को भेजा, हनूमान अङ्गद आदि सब वीर दौड़े ॥२॥ भवन अलका॥ कौतुक कूदि चढ़े कपि लूला । पैठे रावन जन्य करत जवहीं से देखा । सकल कपिन्ह मा क्रोध बिलेखा ॥३॥ घन्दर खेल से कूद कर खा गढ़ पर चढ़ गये और निर्भय राषण के मन्दिर में बैठे।ज्यों ही उसको यह करते देखा, त्यो ही समस्त पन्दरों को बड़ा शोध सुधा ॥३॥ रन से निलज भाजि गृह आधा । इहाँ आइ बक-ध्यान लगावा ॥ अस कहि अङ्गद मारेउ लाता । चितवन सठ स्वारथ मन राता ॥४॥ अंगद ने कहा-अरे निर्लज्ज ! रण से भाग कर घर आया और यहाँ पा कर यकुलि- या ध्यान लगाया है ? ऐला कह फर लात मारा, पर उस दुष्ट का मग स्वार्थ में लगा है, इससे आँख उठाकर देखता नहाँ (य की क्रिया में संलग्न हो रहा है)॥४॥, हरिगीतिका-छन्द। नहिं चितब जब करि कोप कपि गहि, दसन्ह लातन्ह मारहीं ॥ घरि केस नारि निकारि बाहेर, तेति दीन पुकारहीं। 928