पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०२६

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षष्ठ सोपान, लक्षाकाण्ड । घोड़े वन और मनोहर है, ये अजर अमर (चुदाई एवम् मृत्यु से रहित)मन के समान धेगवाले हैं ॥२॥ रथारूढ़ रघुनाथहि देखी। धाये कपि बल पाइ बिसेखी । सही न जाइ कपिन्ह के मारी। तर शवन माया विस्तारी ॥३॥ रघुनाथजी को रथ पर सवार देख यामर विशेष यल पा कर दौड़े। जय बन्दरों की मार नहीं राज्ञी गई, तब रावण ने माया फैलाई ॥३॥ सो माया रघुनीरहि बाँची। लछिमन कपिन्ह सोमानी साँची। देखी कपिन्ह निसाचर अनी । अनुज सहिन बहु कोसलधनी ॥2॥ उस साया से केवल रघुनाथजी बचे रहे, लक्ष्मण और पन्दरों ने उसे सब मान जिया। पानरों ने देखा कि राक्षस को सेना में छोटे भाई के सहित बहुत से रामचन्द्र चले शा रहे हैं ॥७ समा की प्रति में सब का मानी करि हाँची' पाठ है। हरिगीतिका-छन्द । बहु राम लछिमन देखि मर्कट, भालु मन अति अपहरे । जनु चित्र लिखित समेत लछिमन, जहँ हो तहँ वितहि खरे । निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर, शाप सजि कोललधनी। मायां हरी हरि निमिष सह हरषी सकल मरकट-अनी ॥१॥ बहुत से राम लक्ष्मण को देख कर वानर मालू मन में अधिक अपडर गये। जो जहाँ है वे वहीं खड़े होकर लक्ष्मण के सहित रामचन्द्रजी को ऐसे देख रहे हैं मानो लिने र चित्र हो। अपनी सेना को आश्चर्य में डूबी हुई देख कर कोशलेन्द्र भगवान इस फर धंतुष पर बाण जोड़े और एक पल में माया को हर लिया, यह देख कर समस्त धानरी सेना प्रसन्न दुई ॥१५॥ दो-बहुरि राम सब तन चितई, बोले बचन गॅमोर । द्वन्द-जुद्ध देखहु सकल, अमित भये अति और nea फिर रामचन्द्रजी सब की ओर देख कर गम्भीर वचन बोले । हे वीरो! तुम लोग बहुत थक गये हो, अब (विश्राम करो हमारा और रावय) दोनों का युद्ध देना En चो- अस कहि स्थरघुनाथ चलावा । विप्र-घरन-पङ्कज सिर नाना । तब लङ्कस क्रोध उर छावा । गर्जत तर्जत सनमुख धावा ॥१॥ ऐसा कह कर रघुनाथजी ने ब्राह्मण के वरण-कमलों में मस्तक नवा या और रथ को आगे चलाया तब ईश्वर के हदय में क्रोध छा गया, वह गते और काटते हुए सामने वाला ॥१॥