पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०४८

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षष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड । ९७३ पति गति देखि ते करहिं पुकारा । छूटे ऋच नहि बपुल र नारा ॥ उर ताड़ना करहि विधि. नाना । रोवल करहिं प्रताप बखाना ॥३॥ पति की दशा देख कर वे सब चिल्लाती हैं, उनके बाल खुले हैं और शरीर का संभाल नहीं रह गया । शनेक प्रकार से छाती पीट पीट कर रोती हैं और प्रताय वखानती है ॥२॥ तव बल नाथ डोल नित धरनी। तेज हीन पावक ललितली ॥ सेष कमठ सहि लकहि न भारा । सो तनु भूमि परेउ भरि छारा ॥३॥ हे नाथ ! तुम्हारे पराक्रम से सदा घरता काँपती थी, अनि, चन्द्रमा और सूर्य तेज हीन हो जाते थे। शेषनाग और कच्छप तुम्हारा पोझ नहीं सह सकते थे, वह शरोए धूल ले भरा जमीन पर पड़ा है। कुबेर सुरेस समीरा । रन सन मुख पर काहु न धीरा ॥ मुजबल जितेहु काल जम साई । आजु परेहु अनाथ की नाई ॥४॥ वरुण, कुबेर, इन्द्र और पवन युद्ध में सामने कोई धीर नहीं धरते थे। हे स्वामी ! भुजाओं के बल से नापने फाल और यम को जीत लिया, वे ही आज माथ की तरह पड़े जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई । सुत परिजन बल बरनि न जाई । राम धिमुख अस हाल तुम्हारा । रहा न कोउ कुल रोवनिहारा ॥ तुम्हारी प्रभुता जगत में विख्यात है, पुत्र, परिवार और पकिम वर्णन नहीं किया जा सकता । रामविमुखी होने से तुम्हारा ऐसा हाल हुआ कि कुल में कोई रोनेवाला नहीं रह है गया॥५॥. करि जाना॥७॥ तव बस विधि प्रपञ्च सध नाथा। समय दिलिप नित नावहिँ माथा ॥ अब तव सिर सुज जम्बुक खाही । राम बिमुख यह अनुचित नाहीं ॥६॥ हे नाथ! विधाता का सारा प्रपञ्च (सृष्टि) तुम्हारे वश में था, दिपाल डर से सदा सिर नवाते थे। शव तुम्हारे सिर और बाहुभो को सियार खाते हैं, राम-विमुखो को यह अनुचित नहीं है ॥ ६॥ काल बिबस पति कहा न माना । अग-जग-लाथ मनुज हे स्वामिन् ! काला के वश होकर आपने किसी का कहना नहीं माना, घरावर स्वामी (ईश्वर को मनुष्य करके ससझा ॥७॥ पति के मृतक होने से मन्दोदरी आदि रानियों के हृदय में शोक स्थायीभाव है रावण मृतक शरीर का दर्शन आलम्बन विभाव है। वीरतादि गुणों का स्मरण उद्दीपगविभाव है। रोना, छाती पीटना, धरती पर गिरना अनुभाव है। वह मोह, विपाद, चिन्तादि सारी भाषों बारा पुष्ट होकर 'करुणास' हुआ है।