पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०५२

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। षष्ठ सोपान, लङ्काकापडं । ९७७ हरिगीतिका-कुन्द। अति- न हरण-मन तन-पुलक लोचन,-सजल कह पुनि पुनि रमा। का देउँ तोहि त्रैलोक महँ कपि, किमपि नहि बानी समा ॥ सुनु मातु मैं पायउँ अखिल-जग,-राज आजु न संसयं । रन जीति रिघु दल-बन्धु-जुत-पस्यामि राममनामयं ॥३४॥ आनकीजी के मन में बड़ा हर्ष हुना, शरीर पुलकित हो गया, नेत्रों में जल भर आये, धे बार बार कहती हैं। हे हनूमान ! मैं तुमको क्या दूँ? वस्तुतः इस पाणी के समान तीनों लोकों कौन सी चीज़ है ? (कुछ नहीं है)। तय हनूमानजी ने कहा-हे माता ! सुनिए, भाज मैं सम्पूर्ण संसार का राज्य पा गया। इसमें सन्देह नहीं जो शत्रु को जीत कर सेना और भाई लक्ष्मण के सहित रामचन्द्रजी को स्वस्थ (मला चना) देख रहा हूँ॥४॥ दो०-सुनु सुत सदगुन सकल तक, हृदय बसहु हनुमन्त । सानुकूल कोसलपति, समेत अनन्त ॥१०॥ जानकीजी ने कहा-हे पुत्र हनुमान ! सुनो, सम्पूर्ण सद्गुण तुम्हारे हदय में निवास करें और लदमणजी के सहित कोशलनाथ तुम पर सानुकूल रहे ॥१०७॥ चौ०-अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता । देखउँ नयन स्याम मृदु गाता॥ तब हनुमान राम पहिं जाई। जनक-सुता के कुसल सुनाई ॥१॥ हे तात ! अब तुम वही उपाय करो जिसमें मैं कोमल श्याम शरीर आँख से देखू । तब हनुमान रामचन्द्रजी के पास जाकर जनकनन्दनी की कुशलता कह नाई ॥१॥ सुनि सन्देस भानुकुल-भूषन । बोलि लिये जुबराज विभीषन । मारुत-सुत के सङ्ग सिधावहु । सादर जनक-सुतहि लेइ आवहु ॥२॥ सूर्यकुल के भूपण रामचन्द्रजी ने सन्देशा सुन कर युवराज, श्रङ्गद और विभीषण को बुला लिया। उनसे कहा-श्राप लोग पवनकुमार के साथ जाइए और आदर-पूर्वक जनक- नन्दिनी को ले आइए ॥२॥ तुरतहि सकल गये जहँ सीता । सेवहिँ सब निखिचरों बिनीता। बेगि बिभीषन तिन्हहिं सिखावा । सादर तिन्ह सीवहिं अन्हवावा॥३ तुरन्त ही सब लोग जहाँ सीताजी थीं वहाँ गये, सब राक्षसिनियाँ नम्रता पूर्वक उनकी सेवा करती हैं। विभीषण ने शीघ्र बन्हें सिखाया, तब उन निश्वारियों ने शादर के साथ सीताजी को स्नान कराया ॥३॥ गुटका में 'वेगि विभीषन तिन्हहिं सिखायो । तिन्ह धार विधि मजन फरवायो' पाठ है। १२३