पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०६३

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, रामचरित मानस। दो०-नाथ जबहिँ कोसलपुरी, होइहि तिलक तुम्हार । कृपाखिन्धु मैं आउब. देखन चरित उदार ॥ ११५ ।। हे दयासागर नाथ ! अयोध्यापुरी में जिस समय आप का राजतिलक होगा उस भेष्ठ चरित्र को देखने के लिए मैं पाऊँगा ॥१५॥ चौ०-करि बिनती जब सम्मु सिधाये। तब प्रभु निकद बिभीषन आये। नाइ चरन सिर कह मृदु-बानी। बिनय सुनहु प्रभु सारँग-पानी॥१॥ जब विनती कर के शिवजी चले गये, तब प्रभु रामचन्द्र जी के समीप विभीषण पाये। उन्होंने चरणों में मस्तक नवा कर कोमल वाणी से कहा-हे शाहपाणि प्रभो ! मेरी बिनती सुलिए ॥१॥ सकुल सदल प्रभु रावन मारयो। पावन जप त्रिभुवन-बिस्तारयो । दीन मलीन हीन-मति-जाती। मो पर कृपा कीन्हि बहु माँती ॥२॥ हे प्रभो! आपने सकुटुम्स और सेना के सहित रावण को मार कर तीनों लोकों में पवित्र यश फैलाया। मुझ से दीन, मलिन, बुद्धिहीन और नीचजाति पर बहुत तरह से कृपा की ॥२॥ अब जन गृह पुनीत प्रक्षु कीजै। बज्जन करिय समर-सम छीजै ॥ देखि कोल मन्दिर सम्पदा । देहु कृपाल कपिन्ह कह मुदा ॥३॥ हे स्वामिन् ! अब इस सेवक का घर पवित्र कीजिये और स्नान करिये जिसमें लड़ाई की थकावट दूर हो । भण्डार, गृह और सम्पति देख कर, हे कृपालु ! प्रसन्नता से बन्दरों को दीजिए ॥३॥ सब विधि नाथ मोहि अपनाइय। पुनि माहि सहित अवधपुर जाइय ॥ सुनत बचन मुदु दीनदयाला । सजल प्रये दोउ नयन बिसाला ॥४॥ हे नाथ ! सब प्रकार मुझे अपनाइये फिर मेरे सहित अयोध्यापुरी को बलिये। इस तरह विभीषण के मधुर वचन सुन कर दीनदयाल रामचन्द्रजी के दोनों विशाल नेत्रों में जल भर श्राये ॥४॥ दो०-तोर शास-गृह मोर सब, सत्य बचन सुनु मात भरत दसा सुमिरत माहि, निमिष कल्प सम जात ॥ रामचन्द्रजी बोले-हे भाई ! सुनो. तुम्हारा खजाना और घर सब मेरा ही है, मैं सत्य कहता हूँ। भरत की दशा स्मरण कर मुझे एक पल कल्प के समान बीत रहा है। तापस बेष गात कृस, जपत निरन्तर मोहि। देखउँ बेगि सो जतन करु, सखा निहार ताहि ॥ तपस्वी वेष में दुबल शरीर से जो मुझे निरन्तर जंप रहे हैं। हे मित्र | मैं तुम्हारा उप. कार मानंगा कि शीघ्र वही उपाय करो जिसमें उन्हें देखू ।