पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०६६

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षष्ठ सोपान लङ्काकाण्ड । सहायता कर सकते हैं ? (कदापि नही) । रामचन्द्रजी का रन देख कर वानर और रीत प्रेम में मग्न हो गये किसी की इच्छा घर जाने की नहीं है ॥५॥ दो प्रभु प्रेरित कपि आलु सब, राम-रूप शाखि। हरष बिषाद सहित चले, बिनय बिबिध बिधि भाखि ॥ प्रभु को श्राहा से सय बन्दर और लालू रामचन्द्रजी के रूप को हृदय में रख नाना प्रकार से विनती कर के हप-विषाद सहित चले। आनन्द घर जाने को और दुःख रामचन्द्रजी के वियोग का, दोनों भाव साथ ही अन्य में उत्पन्न होना 'प्रथम समुच्चय अलंकार' है। कपिपति नील रीछपति, अङ्गद नल हनुमान । सहित बिभीषन अपर जे, जूथप कपि बलवान ॥ सुप्रीव, नील, जास्वधान, अझद, नल, हनूमान और विभीषण के सहित जो दूसरे बल. वान यूथपति यन्द्र हैं। कहि न सकहिं कछु प्रेम-बस, अरि भरि लोचन बारि। सनमुख चितवहिं राम तन, नयन निमेष निवारि ॥११॥ आँखों में आँसू भर भर कर प्रेम के आधीन हो कुछ कह नहीं सकते हैं, नेत्रों की पलक गिराना छोड़ कर टकटकी लगाये रामचन्द्रजी की भोर सामने देख रहे हैं ॥ ११ ॥ चौ०-अतिसय प्रीति देखि रघुराई। लीन्हे सकल बिमान चढ़ाई ॥ मन महँ बिप्र-चरन सिर नावा। उत्तर दिलिहि बिमान चलावा ॥१॥ रघुनाथजी ने उनकी अत्यन्त प्रीति देख कर सब को विमान पर चढ़ा लिया। मन में ब्राह्मण के चरणों में सिर मचाया और उत्तर दिशा को विमान चलाया ॥१॥. चलत बिमान कोलाहल होई । जय रघुबीर कहइ सब कोई । सिंहासन अति उच्च मनोहर । श्री समेत बैठे प्रभु ता पर ॥२॥ व्योमयान के चलते समय बड़ा शोर हुआ, सब कोई रघुनाथजी का जय जयकार करते । अत्यन्त सुन्दर ऊँचे सिंहासन पर सीताजी के सहित प्रभु रामचन्द्रजी विराजमान हैं ॥२॥ राजत राम सहित आमिनी । मेरु-सृङ्ग जनु घन दामिनी ॥ रुचिर बिमान चलेउ अति आतुर। कीन्हीं सुमन-वृष्टि हरणे सुर ॥३॥ भाया (सीताजी) के सहित रामचन्द्रजी सुशोभित हो रहे हैं, ऐसा मालूम होता है माने बिजली के साथ वादल सुमेरु पर्वत के शिखर पर शोभायमान हो। वह सुन्दर विमान बड़ी शीघ्रता से चला, देवता प्रसन्न हो कर फूलों की वर्षा करने लगे ॥३॥ विमान और सुमेरु पर्वत सिंहासन और शिखर, रामचन्द्रजी और श्याम मेघ, सीताजी और बिजली परस्पर उपमेय उपमान हैं ।