पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०७७

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रामचरित मानस । १००० . कपि तव दरस सकल दुख बीते । सिले आजु मोहि राम पिरीते ॥ बार बार बूझी कुसलाता । तो कह देउँ काह सुनु चाता ॥६॥ भरतजी ने कहा-हे हनुमान ! श्राप के दर्शन से मेरे सभी दुःख जाते रहे, आज राम- चन्द्रजी मुझे प्रीति-पूर्वक मिले । बार बार कुशलता पूछी और कहा-माई ! सुनिये, आप को मैं क्या हूँ ? ॥६॥ एहि सन्देस सरिस जग माहौँ । करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं ॥ नाहि न तात उरिन मैं तोही। अब प्रभु चरित सुनावहु माही ॥७॥ मैंने विचार कर देख लिया कि इस सन्देश के बराबर संसार में कुछ नहीं है। हे तात! मैं श्राप से उऋण नहीं हो सकता, अय प्रभु का चरित्र मुझे सुनाइये ॥७॥ तब हनुमन्त नाइ पद माथा । कहे सकल रघुपति गुनगाथा कहु कपि कबहुँ कृपाल गुसाँई । सुमिरहि माहि दास की नाँई ॥८॥ तब हनूमानजी ने चरणों में मस्तक नवा कर रघुनाथजी के सम्पूर्ण गुणों की कथा कही । भरतजी ने कहा-हे हनूमान ! कहिये, कृपालु समर्थ स्वामी कभी मुझे वास की तरह याद करते हैं? || हरिगीतिका-छन्द । निज दास ज्याँ रघुबंसभूषन, कबहुँ मम सुमिरन करयो। सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि, पुलकि तत चरनन्हि परयो। रघुबीर निजमुख जासु गुनगन, कहत अग जग नाथ जो। काहे न हाइ बिनीत परम पुनीत सदगुन-सिन्धु सो ॥१॥ अपने दास की तरह रघुवंश-भूषण ने कभी मेरा स्मरण किया है। भरतजी के अत्यन्त नन्न वक्षन सुन कर हनुमानजी पुलकित शरीरसे उनके चरणों में पड़े। (मन में विचारते हैं कि) रघुनाथजी जो चराचर के स्वामी हैं, जिनके गुण समूह श्रीमुख से कहते हैं ! वे भरतजी (ऐसे) नम्र, अत्यन्त पवित्र और सदगुणों के समुद्र क्यों न हो?॥१॥ हनूमानजी ने पहले विशेष बात कही कि रघुवीर जिनका गुण गण अपने मुख से कहते हैं। फिर इसका समर्थन सामान्य से किया कि जो चर अचर के स्वामी हैं। इतने से सन्तुष्ट न होकर पुनः विशेष सिद्धान्त से पुष्ट करते हैं कि वे सदगुणों के सागर, परम पावन और विनीत क्यों न हे १ विकस्वर अलंकार है। दो०-राम प्रानप्रिय नाथ तुम्ह, सत्य बचन मम तात । पुनि पुनि मिलत भरत सुनि, हरष न हृदय समात । नूमानजी ने कहा- हे प्यारे स्वामिन् ! आप रामचन्द्रजी को प्राण के समान प्रिय हैं,