पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०८५

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१००० रामचरित मानस । वेरे । ये सब सखा सुनहु खुनि मेरे । मये समर सागर कह मम हित लागि जनम इन्ह हारे । भरतहु ते माहि अधिक पियारे ॥४॥ हे मुनिराज ! सुनिये, ये सब सखा मेरे संग्राम रूपी समुद्र के वेड़ा (जहाज ) रूपए हैं । मेरी भलाई के लिये इन्होंने नरना जन्म हार दिया, इस लिये ये मुझे भरतजी से बढ़ कर प्रिय हैं। सुनि प्रभु बचन मगन सब भये । निमिष निमिष उपजत सुख नये ॥५॥ प्रभु के वचन सुन कर सय प्रेम में मग्न हो गये, पलक पलक में नया सुख उत्पन्न हो रहा है ॥५॥ दो-कौसल्या के चरनन्हि, पुनि तिन्ह नायेउ साथ । आसिष दीन्ही हरषि तुम्ह, प्रिय मम जिमि रघुनाथ ॥ फिर उन मित्रों ने कौशल्याजी के चरण में मस्तक नवाया | माताजी ने वृदय में हर्पित हो कर आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम सब हमें उसी तरह प्रिय हो जैसे मुझे रघुनाथजी प्यारे हैं। सुमन वृष्टि नभ सङ्कुल, भवन चले सुखकन्द । चढ़ी अटारिन्ह देखहि, नगर नारि बरवृन्द ॥८॥ आकाश से भरपूर फूलों की वर्षा हो रही है, सुख के कन्द रामचन्द्रजी महल की ओर चले । नगर की श्रेष्ट स्त्रियाँ भुण्ड की अण्ड अटारियों पर चढ़ कर देखती हैं ॥८॥ ची-कञ्चन कलस बिचित्र संवारे । सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे ॥ बन्दनवार पताका केतू । सबन्हि बनाये मङ्गल हेतू ॥ १ ॥ सभी लोगों ने अपने अपने दरवाजे पर सुवर्ण के कलश विलक्षण रीति से सज धज कर रक्खे । बन्दनवार, ध्वजा और पताका सब ने मङ्गल के हेतु बनाये ॥२॥ बीथी सकल सुगन्ध सिंचाई । गजमनि रचि बहु चौक पुराई । नाना माँति सुमङ्गल साजे । हरषि नगर निसान बहु बाजे ॥२॥ सब गलियाँ सुगन्धित जल से सिँचवाई गई और बहुत से गजमुक्ताओं के रच कर चौक पुरवाये गये । अनेक प्रकार के सुन्दर मंझल सजाये गये, प्रसन्नता से नगर में डकर आदि बहु- तेरे बाजे बजते हैं ॥२॥ जहँ तहँ नारि निछावरि करहीं। देहि असीस हरष उर भरहीं । कञ्चनधार । आरती नाना । जुबती सजे करहि सुभ माना ॥३॥ जहाँ तहाँ स्त्रियाँ निछावर करती हैं और इंष परिपूर्ण हदय से आशीर्वाद देती हैं। सुवर्ण के थालों में नाना प्रकार से भारतां सजे हुए मङ्गल गान करती हैं ॥३॥ 1