पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१०९८

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०१६ चौ०-बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाही । जिमिपर-द्रोह सन्त मनमाही। तब रघुपत्ति सब सखा बोलाये। आइ सबन्हि सादर सिरनाये ॥१॥ घर'भूल गये सपने में भी उसकी सुध नहीं पाती, जैसे सन्तों के मन में पराये का द्रोह विस्मरण हो जाता है। तब रघुनाथजी ने सब सखाओं को बुलाया, सभी ने प्रा कर पादर के साथ सिर नवाया ॥१॥ परम प्रीति समीप बैठारे । भगतसुखद मृदुवचन उचारे ।। तुम्ह अति कोन्हि मोरि सेवकाई। मुख पर केहि बिधि करउँबड़ाई ॥२॥ बड़ी प्रीति से पास में बैठा कर भको को सुख देवेवाले रामचन्द्रजी कोमल वचन बोले। भाप लोगों ने हमारी अत्यन्त सेवा की, मैं मुंह पर किस तरह बड़ाई कर ॥ २॥ तातें मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे । मम हित लागि प्रवल सुख त्यागे। अनुज राज सस्पति बैदेही। देह गेह परिवार सनेही ॥३॥ श्राप सब मुझे इसलिये बहुत प्यारे लगते हैं कि मेरी भलाई के कारण अपने घरों के सुख त्याग दिये । छोटे भाई, राजप, सम्पति, जानकी, शरीर, घर, कुटुम्बी और जितने स्नेही हैं ॥३॥ सब मम प्रिय नहिँ तुम्हहिँ समाना । मृषा न कहउँ मार यह माना । सब के प्रिय सेवक यह नीती । मोरे अधिक दास पर प्रीती ॥४॥ ये सब हमें श्राप लोगों के समान प्यारे नहीं हैं, मिथ्या नहीं कहता हूँ मेरा यह स्वभाव है। यह नीति है सेव को प्यार होते हैं, पर मेरे एदय में दासों पर अधिक प्रोति . दो-अब गृह जाहु सखा सब, अजेहु मोहि दृढ़ नेम । सदा सर्बगत सहित, जानि करहु अति प्रेम ॥ १६ ॥ हे मित्राय श्राप सव अपने अपने घर जाओ और मुझे उछ नियम ले भजना। सदा सब में व्यापक और सब का हितकारी जान कर मुझ पर अत्यन्त प्रेम करना ॥ १६ ॥ चौल-सुनि प्रभु बधन मगन सब भये । को हम कहाँ बिसरि तन गये ॥ एकटक रहे जोरि कर आगे। सकहिं नकछु कहि अति अनुरागे ॥१॥ प्रभु रामचन्द्रजी के वचन सुन कर सब प्रेम में मग्न हो गये, हम कौन हैं और कहाँ है? इत्यादि शारीर की सुध भूल गये। सामने हाथ जोड़ कर टकटकी लगाये खड़े रहे, अत्यन्व मोति के कारण कुछ कह नहीं सकते हैं ॥ १ ॥