पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामचरित मानस । १०३६ है। नर्तक और नृत्य में 'न' का, रामचन्द्र और राज्य में 'र' का अनुप्रास है। कोई अपराध ही नहीं करते जिससे दण्ड की आवश्यकता पड़े। कही अनुचित संगठन नहीं जिससे भेदनीति की ज़रूरत हो । किसी का कोई शत्रु नहीं जिससे जीतने की नौबत श्रावे, यह व्यंगार्थ वाच्यार्थ के बराबर गुणीभूत व्या है । सभा की प्रति में 'जितहु मनहिं अस सुनिय जग' पाठ है। चौ०-फूलहिँ फरहिँ सदा तरु कानन । रहहिँ एक सँग गज पञ्चानन ॥ खगग सहज बयर बिसराई। समन्हि परसपर प्रीति बढ़ाई ॥१॥ वृत सदा फूलते फलते हैं, हाधी और सिंह एक साथ रहते हैं। पक्षी और मग सब जीवों ने स्वाभाविक बैर भुला कर आपस में प्रीति बढ़ाई है ॥१॥ हाथी और सिंह का एक साथ रहना और पक्षी मृगों का स्वाभाविक वैर त्याग कर परस्पर प्रेम बढ़ाना अर्थात् कारण के विरुद्ध कार्य का उत्पन होना 'पञ्चम विभावना अलंकार है। कूजहिँ खग मृग नाना बन्दा । अमय चरहिँ बन करहिँ अनन्दा ।। लोतल सुरभि पवन बह मन्दा । गुजत अलि ले बलि मकरन्दा ॥२॥ पक्षी बोलते हैं और नाना प्रकार के मृगों के झुण्ड वन में निर्भय विचरते हैं तथा आनन्द करते हैं । शीतल, मन्द, सुगन्धित बयारि महतो है, भंवरे गुजजार करते हुए फूलों के रस लेकर (अपनी बातों में) चले जाते हैं ॥२॥ लता बिटप माँगे मधु चवहीं । मन भावतो धेनु पय स्खवहीं ॥ ससिसम्पक्ष सदा रह धरनी। त्रेता भइ कृतजुग 'कै करनी ॥३॥ लता और वृक्ष माँगने से मधु टपकाते हैं, गौये मनमाना दूध देती हैं। पृश्वी सदा खेती ले परिपूर्ण रहती है; त्रेता में सतयुग की करनी हुई ॥३॥ प्रगटी गिरिम्ह विविध मनि खानी । जगदातमा भूप जग जानी ॥ सरिता सकल बहहिं बर बारी । खोतल अमल स्वादु सुखकारी॥४॥ जगत के प्राण रामचन्द्रजी को संसार का राजा जान कर पर्वतों ने नाना प्रकार के रत्नों की खाने प्रकट कर दी । सम्पूर्ण नदियाँ उत्सम जल बहती हैं जो शीतल, निर्मल, स्वादिष्ट और मुख उत्पश्च करनेवाले हैं ॥४॥ सागर निज मरजादा रहही । डारहि रतन टन्हि नर लहहीं । सरसिज सङ्कुल सकल तड़ागा। अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा ॥५॥ समुद्र अपनी मर्यादा से रहते हैं, किनारे पर रत्न डालते उन्हें मनुष्य पाते हैं । सम्पूर्ण वालाब कमलों से भरपूर है और दसों दिशाओं में पृथक पृथक बड़ी प्रसन्नता प्रकट हो रही है।