पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१११२

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०३३ चौ०-जहँतहँ नर रघुपति गुन गावहि । बैठि परसपर इहइ सिखावहिँ । भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि । सोमा सोल रूप गुन धामहि ॥१॥ जहाँ तहाँ मनुष्य रघुनाथजी के गुणों को गाते हैं, आपस में बैठ कर एक दूसरे को यही सिखाते हैं कि दीनजनों के रक्षक, शामा, शील, कर और गुणों के धाम रामचन्द्र जी का भजन करो ॥५॥ जलज-बिलोचन स्यामल गातहि । पलक नयन इव सेवक त्रातहि ॥ घृत सर रुचिर चाप तूनीरहि । सन्त कञ्जमन रवि रनधीरहि ॥२॥ कमल के समान लाल नेन, श्यामल शरीर, पलक और आँख के समान सेवकों की रक्षा करनेवाले, सुन्दर धनुष बाण रकस को धारण किए हुए, युद्ध में विचक्षण और सन्त कपी कमल वन को प्रफुलित करनेवाले सूर्य हैं ॥२॥ काल कराल ब्याल खगराजहि । नमत साम अकाम समता जहि ॥ लोभ मोह मृग-जूथ किरातहि । मनसिज करि हरिजन सुखदातहि ॥३॥ विकराल काल की सर्प के असनेवाले गरु रूप रामचन्द्रजो जो निष्काम नमस्कार पारनेवाले पर प्रेम करते हैं । लोभ और मोह रूपी मृगों के झुण्ड के लिये शिकारी भील रूप हैं, कामदेव रूपी हाथी को दमन करने में सिंह रूप और सेवकों को सुख देनेवाले हैं, ॥३॥ संसय सेकि निबिड़ तम मानुहि । दनुज गहन धन दहन कृशानुहि ॥ जनक-सुता समेत रघुबीरहि । कसन मजा भञ्जन भव-भीरहि ॥४॥ सन्देह भार शोक कपीसधन अन्धकार के लिये सूर्य, राक्षस रूपी घोरजंगल के जलाने में अग्नि रूप है। संसार सम्बन्धी भय चूर चूर करनेवाले रघुनाथजी को जनकनन्दिनी के सहित पयों नहीं भजते ? ॥४॥ बहु बासना मसक हिम-रासिहि । सदा एकरस अज अधिनासिहि ॥ मुनिरजन भजन महिमारहि । तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि ॥५॥ बहुतेरी कामना रूपी मच्छड़ों को नसाने में पाले की राशि, लदा एकरस, अजन्मे और भाश रहित हैं। मुनियों को प्रसन करनेवाले, पृथ्वी के बोझ को नशानेवाले जो तुलसीदास के स्वामी और बड़े उदार हैं ॥५॥ अयोध्यापुरी के निवासियों द्वारा भविष्य में होनेवाली पात को वर्तमान की तरह तुलसीदास के स्वामी कहलाना 'भाविक अलंकार' है। दो-एहि बिधि नगर नारि नर, करहिं राम गुन गान । सानुकूल सब पर रहहिँ , सन्तत कृपानिधान ॥३०॥ इस प्रकार नगर के स्त्री-पुरुष रामचन्द्रजी के गुणों का गान करते हैं और पानिधान उन सब पर सदा प्रसन्न रहते हैं ।। ३० ॥ १३०