पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११२६

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०४७ दो०-मम गुन-ग्राम नाम रत, गत ममता मद मोह । ताकर सुख सोइ जानइ, पराननद-सन्दोह ॥१६॥ मेरे गुण-समूह और नाम में लगे हुए ममता, मद और शान से रहित, उस परम मानन्द के समूह सुख को घे ही जानते हैं ॥ ४६ ॥ सुनत सुधा सम बचन राम के । गहे समन्हि पद कृपा-धाम के ॥ जननि जनक गुरु वन्धु हमारे । कृपानिधान प्रान ते प्यारे ॥१॥ रुपा के स्थान रामचन्द्रजी के शामृत के समान मधुर वचन सुनतेही सब पाँव पड़े और बाले-हे पानिधान ! पाप हमारे माता, पिता, गुरु, भाई और प्राणों से बढ़ कर प्यारे तन धन धाम राम हितकारी । सब विधि तुलह प्रनतारति हारो अस सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ। मातु पिता स्वारथ रत ओऊ ॥२॥ हेरामचन्द्रजी भाप तन धन और घर के हितकारी हैं और सब तरह से शरणागतों के दुःला को हरनेवाले हैं । ऐसी शिक्षा श्राप के बिना कोई नहीं देता, माता-पिता वे भी स्वार्थ में तत्पर रहते हैं अर्थात् अपने ही लाम का सिखापन देते हैं ॥२॥ . उपमेय-रामचन्द्र और उपमान-माता पिता हैं । उपमान से उपमेय में कुछ अधिक गुण वर्णन करना 'व्यतिरेक सलंकार' है। हेतु रहित जग जुग उपकारी । तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥ स्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं ॥३॥ हे असुरों के शत्रु ! श्राप और श्राप के सेवक दोनों बिना कारण जगत उपकारी हैं। संसार में सब स्वार्थ के मित्र हैं, हे प्रभो । सपने में भी इसमें परमार्थ नहीं है ॥३॥ सब के बचन प्रेम रस साने । सुनि रघुनाथ हृदय हरषाने ॥ निज निज गृह गये आयलु पाई। बरनत प्रातु अत्तकही सुहाई ॥४॥ सब के वचन प्रेम-रस से सने हुए सुन फर रघुनाथजी हृदय में प्रसन्न हुए । आशा पा कर सरप्रभु की सुन्दर यतकही वर्णन करते अपने अपने घर गये ।। सभा की प्रति में 'निज गृह गये सुझायनु पाई पाठ है। दो०--उमा अवधवासी नर, नारि कृतारथ रूप । ब्रह्म सच्चिदानन्द घन, रघुनायक जहँ भूप ॥४७॥ शिवजी कहते हैं-हे उमा ! अयोध्या निवासी स्त्री-पुरुष छथार्थ रूप हैं। जहाँ सत, चित् मानन्द के समूह परब्रह्म रघुनाथजी राजा हैं।। १७ ॥ राजा का रूप लघु-आधार है और लच्चिदानन्द परब्रह्म पड़े श्राधेय हैं । बड़े प्राधेय को छोटे प्राधार में स्थापन करना द्वितीय अधिक अलंकार' है। . और