पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११३०

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०५१ समुदाय गान करते हैं । हे अयोध्या के भूपण ! श्राप दयालु, मिथ्याभिमान को छिन्नभिन्न करने में सब प्रकार से दक्ष है॥ कलिमल मथन नाम ममताहन । तुलसिदास प्रभु पाहि प्रनत-जन ॥५॥ आप का नाम कलियुग के पापों को मथनेवाला और ममत्व का नाशक है, हे तुलसी. दास के स्वामी ! मुझ शरणागत जन की रक्षा कीजिये ॥५॥ दो०-प्रेम सहित मुनि नारद, बरनि राम-गुन-ग्राम । सेोमा-सिन्धु हृदय धरि, गये जहाँ विधि धाम ॥५१॥ मारद मुनि प्रेम के साथ गुण-समूह वर्णन कर शोभा के समुद्र रामचन्द्रजी को एदय में बसा कर जहाँ ब्रह्माजी का लोक है वहाँ गये ॥ ११ ॥ पार्वतीजी के प्रश्न के अनुसार सभी उत्तर पूरे हुए और रामचरितमानस समास हुआ । यही बात नीचे की चौपाइयों में शङ्करजी कहते हैं। चौक-गिरिजा सुनहु बिलद यह कथा । मैं सब कही मोरि मति जथा। रामचरित सतकोटि अपारा । सुति सारदा न बरनइ पारा ॥१॥ शिवजी कहते हैं-हे पार्वती ! सुनो, यह निर्मल कथा जैसी मेरी बुद्धि है मैं ने सब कही । रामचन्द्रजी का चरित्र अनन्त अपार है, सरस्वती और वेद भी वर्णन करके पार नही पा सकते ॥१॥ राम अनन्त अनन्त . गुनानी । जनम करम अनन्त नामानी ॥ जलसीकर महि रज गनि जाहीं । रघुपति चरित न बरनि सिराहीं ॥२॥ रामचन्द्रजी अनन्त हैं, गुण-समूह अनन्त हैं और उनके जन्म, कर्म, नामावली.सभी अनन्त हैं। पानी की छोटी बूंदे, धरती की धूलि के कण चाहे गिन लिये जाँय परन्तु रघुनाथजी के चरित्र काह कर समाप्त हो ही नहीं सकते ॥२॥ जल सीकर और महि रज का गिना जाना उत्कर्ष का कारण नहीं है, क्योंकि ये गिने जॉब तो भी रघुनाथजी के गुणों का अन्त नहीं मिल सकता 'प्रौढोक्ति अलंकार' है। बिमल कथा हरि-पद-दायनी । मगति हाइ सुनि अनपायनी ॥ उमा कहेउँ सब कथा सुहाई । जो भुसुंडि स्वगपतिहि सुनाई ॥३॥ यह निर्मल कथा भगवान के पर (वैकुण्ठ धाम) को देनेवाली है, खुन कर निश्चल भक्ति होती है। हे उमा। मैं ने वह सब सुहावनी कथा कही, जो कागभुशुण्ड ने गरुड़ को 'सुनाई थी ॥३॥ कछुक रामगुन कहेउँ बखानी । अन्न का कहउँ से कहहु भवानी । सुनि सुभकथा. उमा हरषानी । बोली अति बिनीत मृदु-बानी हा हे भवानी ! कुछ एक रामचन्द्रजी के गुणों को मैं ने बखान कर कहा, अब क्या कहूँ।