पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११३४

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. सनम सोपाल, उत्तरकाण्ड । १०५५ . इस इतिहास मा के अवण करने से रामवन्द्रजी के चरणों में विश्वास उत्पन्न होगा और रिना श्रम लोग संसार-सागर से पार हो जायग' अर्थात् प्रत्यल्प साधन से अलभ्य लाभ वर्णन करना द्वितीय विशेष अलंकार' है। दो०-ऐसइ मल्ल विहरूपति, कोन्ह काग सन जाइ। सो सम सादर कहिहउँ, सुनहु उमा मन लाइ ॥१५॥ ऐसा ही प्रश्न गराड़ ने जा कर कागभुशुण्ड से किया था। हे उमा । वह सब मैं श्रादर के साथ हंगा, मन लगाफर सुनो ॥५५॥ चौ०-मैं जिमि कथा सुनी अवमाधनि । सो प्रसङ्ग सुनु सुमुखि सुलेपनि प्रथम दच्छ गृह तव अवतारा । सती नाम तय रहा तुम्हारा ॥१॥ हे सुन्दर मुख और सुन्दर नेवाली, प्रिये ! संसार से मुक्त करनेवाली, कथा को जिल तरह मैं ने सुनी वह सुने।। पहले तुम्हारा जन्म दक्षप्रजापति के घर में हुआ था, तब तुम्हारा नाम सतीधा ॥१॥ पहले शिवजी तीसरे प्रश्न का उत्तर देते हैं। इसका कारण यह है कि शेष प्रश्नों के उत्तर कागभुशुण्ड और गरुड सस्वाद में सब ना जायगे और उसके बीच में अपने कथा सुनने की बात कहनी धे-गेल पड़ती। दन्छ जज्ञ तव मा अपमाना । तुम्ह अति कोष तजे तक पाना । मम अनुचरन्ह कीन्ह लख सका । जानहु तुम्ह सो सकल प्रसङ्गा ॥२॥ दक्ष के यज्ञ में तुम्हारा अपमान हुआ, तब तुमने अत्यन्त शोध से प्राण तज दिया। मेरे सेवकों ने यश विध्वंश किया, वह सारी पाथा तुम जानती हो ॥२॥ तय अति साक्ष अयउ सन मारे । दुखी भयउँ नियोग प्रिय तारे ॥ सुन्दर बन गिरि सरित तड़ागा । कौतुक देखत फिाउँ बिरागा ॥३॥ हे प्रिये । तब मेरे मन में बड़ा सोच हुशा और तुम्हारे वियोग से मैं दुखी हुआ। कैलास को त्याग कर पृथ्वी पर विचरने लगा-इन्दर धन, पर्वत, नदी और तालाओं का कुतूहन देवता फिरता था; किन्तु कहीं भी मन अनुरत नहीं हुधा ॥३॥ गिरि सुमेरु उत्तर दिसि दूरी । नीलसैल एक सुन्दर भूरी ॥ दुम्जा इस बात का हुआ कि सत्सा में विच्छेद पड़ गया। तासु कनक-मय. सिखर सुहाये । चारि चारु मारे मन भाये ॥४ सुमेरु पर्वत से उत्तर दिशा में दूर पर एक बड़ा ही सुन्दर नीलाचल है। उसकी सुवर्ण- मयी सुहावनी चार चोटियाँ हैं, वे सुन्दर शा मेरे मन को सुहावने लगे ॥n सुमेरु हिमालय पर्वत का नाम है। इसके उत्तर भाग में तिव्यत प्रदेश है, उसके उत्तरी भाग में नीलिगिरि पर्वत है जिसको वर्तमान में कीनलेन पहाड़ कहते हैं।