पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११४३

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१०६४ रामचरित मानस। सविवागमन नगर प मरना । अरसागमन प्रेम बहु बरना। करि पक्रिश सङ्ग पुरवासी । मरन गये जहँ प्रभु सुवरासो ॥३॥ सुमन्त्र का अयोध्या में लौट आना, राजा का मरना, भरतजी का आगमन और उनका प्रेम बहुन प्रकार से वर्णन किया । राजा को अन्त्येष्ठिक्रिया करके पुरवासियो के सङ्ग भरत जी वहाँ गये जहाँ सुख के राशि प्रभु रामचन्द्रजी थे॥३॥ पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाये । लेइ पादुका अवधपुर आये । भरत रहनि सुस्पति-गत करनी । प्रभु अरु अत्रि भैंट पुनि बरनी।। फिर रघुनाथजी ने बहुत तरह समझाया, तब वे खड़ाउओं को ले कर अयोध्यापुरी को, लौट आये । भरतजी के रहने का ढा, इन्द्र के पुत्र की करतूत कह कर फिर प्रभु राम वन्द्रजी और अत्रिमुनि की भेंट कही ॥४॥ दोहा-कहि चिराध बच जेहि विधि, देह तजी सरभङ्ग। बनि सुतीछन प्रीति पुनि, प्रभु अगस्ति सनसङ्ग ६॥ जिस तरह विराध माग गया और शरमा मुनि ने शरीर त्याग किया वह कह कर फिर सुतीक्षण मुनि की पीति भार प्रभु अगस्त्य जी का सरसङ्ग वर्णन किया ॥६५॥ जो०-शाह दंडक बन पावनताई । गाध भइत्री पुनि तेहि गाई । पुनि प्रभु पञ्चश्टो कुल बासा । भजी सकल मुनिन्ह के त्रासा१॥ दण्डकारण्य का पवित्र होना कह कर फिर उसने गिद्ध की मित्रता गान की । तदनन्तर प्रभु रामचन्द्र मी ने पचवटी में निवास कर समस्त मुनियों की त्रास को नसाया ॥१॥ पुनि लछिमन उपदेस अनूपा । सूपनखा जिमि कोन्ह कुरूपा । खर दूषन बध बहुरि बखाना । जिमि सब मरम दसानन जाना ॥२॥ फिर लक्ष्मण जी की अनुपम उपदेश देना और उन्हों ने जिस तरह सूपणमा यो कुरूप किया, वह पहा । पुनः बरदूषण आदि का संहार और जैसे रावण ने सब भेद जाना वह दसकन्धर मारीच बतकही। जेहि विधि भई सो सब तेहि कही। पुनि माया सीता कर हरना । श्रीरघुबीर शिरह कछु धरना ॥३॥ जिस तरह रावण और मारीच की बातचीत हुई वह सब उसने कही। फिर छलाजी से ) सीताजी का हरण और श्रीरघुनाथजी का कुछ विरह वर्णन किया ॥३॥ पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कोन्ही । बधि कबन्ध सधरिहि गति दीन्ही॥ बहुरि बिरह बरनत रघुबोरा । जेहि बिधि गये सरोवर तीरा ॥४॥ फिर प्रभु रामचन्द्रमी ने जिस तरह गिद्ध की करनी की और कबन्ध का वध करके खान किया ॥२॥