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पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११४८

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सप्लस सोपान, उत्तरकाण्ड ।

चौ०--गुनकृत सन्यपाल नहिँ केही । कोउ न मान मद तजेउ निही ।

जोबन ज्वर केहि नहिँ बलकावा । समता हि कर जल न नसावा ॥१॥

गुणों का किया हुमा सजिपात (विदेोष-मर) किस को नहीं हुभा अभिमान और मद को त्याग कर कोई पार नही गया। यानी रूपी ज्वर ने किस कर नहीं उबाल दिया और ममत्व ने किस के यश का नाश नहीं किया ॥१॥

मच्छर काहि कल न लाना । काहि न सोक समीर डालावा ॥

चिन्ता साँपिन को नहिं खाया । को जग जाहिल व्यापी माया ॥२॥

मत्सर या डाय। फिस को कलङ्क नहीं लगाया ' शो रूपो वायु ने किस कोमधी हिलाया चिन्ता रूपी साँपन ने किस को नहीं काट खाया ? कौन ऐला प्राणी संसार में है जिसको माया न व्यापी हो ? ॥२॥

कोद. मनोरथ दारु सरीरा । जेहि न लाग धुन को अस धीरा ॥

सुत वित लेक ईपना तीनी । केहि कै मात इन्ह छत्त न मलीनी ॥३॥

शरीर रूपी कार में मनोरथ रूपी कोडा-धुन जिस को न लगा हो ऐसा कौन साहसी है १ पुष, धन और जन इन तीनों की प्रबल इच्छा ने किस की बुद्धि को मलिन नहीं किया ? ॥३॥

यह सब माया कर परिवारा । प्रबल अभित को भरनइ पारा।।

चतुरानन जाहि डेराही । अपर जीव केहि लेख माहीं ।

यह सब अनन्त पल माया के कुटुम्च को वर्णन करके कौन पार पा सकता है ? शिवजी और ब्रह्माजी जिसको डरते हैं, फिर दूसरे जीव किस गिनती में हैं ? ॥४॥

जिसको महा शिव डरते हैं, उसके सामने अन्य प्राणी किस गणना में हैं अर्थात तो डरे डराये हैं 'काव्यायचि अलंकार' है।

दो च्यापि रहेड संसार मह, माया कटक प्रचंड।

सेनापति कामादि भट, दस्म कपट पाखंड।

माया की भयनक सेना संसार में फैली हुई है, उसके काम, मोध, लोभ सेनापति है और अमिमान, छल, पाखण्ड नादि योद्धा है।

सो दासी रघुबीर के, समुझे मिथ्या सोपि ।

छूट न राम कृपा बिनु, नाथ कहउँ पदरोपि ॥१॥

वह माया रघुनाथशी की दासी है और समझ लेने पर वह निश्चय भूठी है। काग. भुयगाजी कहते हैं-हे नाथ ! मैं प्रतिक्षा करके कहता हूँ कि बिना रामचन्द्रजी की कृपाके एई महीं सकती ॥७॥