पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११५०

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। सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड। १०७१ भात्रों को सुख देनेवाली है। जो बुद्धि के मैले, विषयाधीन और कामी हैं, हे स्वामिन् ! वे स्वामी रामचन्द्रजी पर इस तरह अज्ञान का प्रारोपण करते हैं ॥१॥ एक रघुनाथजी की लीला राक्षसों को अज्ञान उत्पन्न करतो और भत्तों को सुख देती है। वस्तु एक ही, कार्य विपरीत भिन्न भिन्न 'प्रथम व्याधात अलंकार है। नयन-दोष जा कहूँ जब हाई। पीतबरन ससि कह कह साई। जब जेहि दिसि-शाम होइ खगेसा । सो कह पच्छिम उयेउ दिनेसा ॥२॥ जब जिसके नेत्र में विकार (कमल रोग) हो जाता है, तब वह चन्द्रमा को पीले रङ्गका कहता है । हे पक्षिराज! जय जिसको दिग्भ्रम होता है, तब वह सूर्य को पश्चिम उदय हुमा कहता॥२॥ नौकारूढ़ चलत जग देखा । अचल माह बम आपुहि लेखा ॥ बालक भ्रमहि न भमहिँ हादी । कहहिँ परस्पर मिशाबादी ॥३॥ नाव पर चढ़ कर यात्रा करनेवाला संसार को चलता हुआ देखता है और प्रधान वश अपने को स्थिर समझता है। लड़के धूमते हैं। किन्तु घर आदि नहीं धूमले, पर वे आपस में मिथ्या बातें कहते हैं कि देखो-वह घर वृतादि घूम रहे हैं ॥३॥ हरि विषइक अस माह विहङ्गा । सपनेहुँ नहिं अज्ञान प्रसङ्गा ॥ माया यस मतिमन्द अभागी । हृदय विधि लागी ॥४॥ हे पक्षिश्रेष्ठ ! भगवान के विषय का ऐसा ही प्रशान है, वहीं सपने में भी अज्ञान की पात नहीं है । मायाधीन, मन्दबुद्धि, प्रभागे मनुष्य जिनके हदय पर बहुत तरह (धन, पुत्र, कसत्रादि) के पड़दे पड़े हैं ॥४॥ ईश्वर के रूप मे यधार्थ न पहचानने के लिये प्रपल कारण माया का वशवर्ती होना है। साथ ही नीचबुद्धिता, दुर्भाग्य शौर हदय पर नामा तरह के परदे, अन्य हेतुत्रों का भी उपस्थित रहना द्वितीय समुच्चय अलंकार है। ते सठ हठ बस संसय करहीं । निज अज्ञान राम पर घरहीं ॥५॥ वे मूर्ख दुराग्रह वश सन्देह करते हैं और अपना ज्ञान रामचन्द्रजी पर भारोपण दो०--काम क्रोध मद लाभ रत, गृहासक्त दुखरूप ते किमि जानहि रघुपतिहि, मूढ़ परे तमकूप । जो काम, क्रोध, मद और लोभ में तत्पर, गृह कार्यों में लिप्त, दुःख के रूप रघुनाथजी को कैले जान सकते हैं जो अंधेरे कुएँ में पड़े हैं। निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिँ कोइ । सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन अम होइ ॥३॥ निगुण रूप अत्यन्त सुगम है और सगुण रूप को कोई जानता ही नहीं। भगवान का. जवनिका बहु करते हैं ॥५॥ ॥ हैं। वे मूर्ख